पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५८७

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कहै रतनाकर सुरासुर ससंक सबै
बिबस बिलोकत लिखे से चित्रपट मैं।
लोकपाल दौरन दसौ दिसि हहरि लागे
हरि लागे हेरन सुपात बर बट मैं।
खसन गिरीस लागे त्रसन नदीस लागे
ईस लागे कसन फनीस कटि तट मैं।
ढोंग जात्यो ढरकि हरकि उर सोग जात्यो
जोग जात्यो सरकि सकंप पँखियानि तें।
कहै रतनाकर न करते प्रपंच ऐंठि
बैठि धरा देखते कहूँधौ नखियानि तें।
रहते अदेख नहीं बेख वह देखत हूं
देखत हमारे जान मोर पखियानि तें।
ऊधो ब्रह्मज्ञान को बखान करते न नैकु
देखिलेत कान्ह जो हमारी अँखियानि तें।
सीतल सुखद समीर धीर परिमल बगरावत।
कूजत विविध बिहंग मधुप गुंजत मनभावत।
वह सुगंध वह रंग ढंग की लखि चटकाई।
लगति चित्र मी नंदनादि बन की रुचिराई।

२- वियोगी हरिजी अपना जीवन प्राचीन भक्तों की प्रणाली से व्यतीत कर रहे हैं। व्रजभाषा की तदीयता के साथ उपासना करना और भगवद्भजन में, देश-सेवा में, सामयिक सुधारों के प्रचार में निरत रहना ही इनका लक्ष्य है। वे गद्य-पद्य दोनों लिखने में दक्ष हैं और दोनों ही में उन्होंने कई एक सुन्दर ग्रंथों की रचना की है। 'वीर सतसई' उनका प्रसिद्ध ग्रन्थ है। साहित्य-सम्मेलन से उस पर उनको १२०० ) पुरस्कार