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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५८८

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भी मिल चुका है। इस पुरस्कार को उन्होंने साहित्य-सम्मेलन को ही अर्पण कर दिया, स्वयं नहीं लिया। उनका यह त्याग भी उनकी विरक्ति का सूचक है। उनकी ब्रजभाषा की रचनायें अष्ट छाप के वैष्णवों के ढंग की होती हैं, उनमें सरसता और सहृदयता भी प्रचुर मात्रा में मिलती है। 'वीर सतसई' उनका आदर्श ग्रन्थ है। सामयिक गति पर दृष्टि रख कर उन्होंने इस ग्रन्थ में जिस प्रकार देश और जाति की आँखें खोली हैं, उसकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है। लगभग उनकी अधिकांश रचनायें उपयोगिनी और भावमयी हैं। वर्त्तमान ब्रजभाषा कवियों में उनका भी विशेष स्थान है। कुछ कवितायें नीचे लिखी जाती हैं:—

जाके पान किये सबै जग रस नीरस होत।
जयति सदा सो प्रेमरस उर आनन्द उदोत।
बैन थके तन मन थके थके सबै जग ठाट।
पै ये नैना नहिं थके जोवत तेरी बाट।
प्रेम तिहारे ध्यान में रहे न तन को भान।
अँसुअन मग बहि जाय कुल कान मान अभिमान।
पावस ही में धनुष अब, नदी तीर ही तीर।
रोदन ही में लाल दृग नीरस ही में बीर।
जोरि नाँव सँग 'सिंह' पद करत सिंह बदनाम।
ह्वै हौ कैसे सिंह तुम करिसृगाल के काम।
या तेरी तरवार में नहि कायर अब आब।
दिल हूं तेरो बुझि गयो वामें नेक न ताब।

वियोगी हरि जो ब्रजभाषा के अनन्य भक्त हो कर भी कभी कभी कुछ पद्य खड़ी बोली के भी लिख जाते हैं। दो ऐसे पद्य भी देखियेः—

तू शशि मैं चकोर तृ स्वाती मैं चातक तेरा प्यारे।
तू घन मैं मयूर तू दीपक मैं पतंग ऐ मतवारे।