पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६०६

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किसी किसी का भावोच्छ्वास उनको उस प्रकार की रचना करने के लिये वाध्य करता है। वे अपने विचारानुसार उसको बोधगम्य ही समझते हैं, पर भाव-प्रकाशन में अस्पष्टता रह जाने के कारण उनकी रचना जटिल बन जाती है। कवि-कर्म्म की दृष्टि से यह दोष है। इससे बचना चाहिये । यह सच है कि गूढ़ता भी कविता का एक अंग है। गम्भीर विषयों का वर्णन करने में या अज्ञेयवाद की ओर आकर्षित हो कर अनुभूत अंशों के निरू- पण करने में गूढ़ता अवश्य आ जाती है किन्तु उसको बोधगम्य अवश्य होना चाहिये। यह नहीं कि कवि स्वयं अपनी कविता का अर्थ करने में असमर्थ हो। वर्तमान काल की अनेक छायावादी कवितायें ऐसी हैं कि जिनका अर्थ करना यदि असंभव नहीं तो वह कष्ट साध्य अवश्य है। मेरा विचार है, इसमें छायावाद का पथ प्रशस्त होने के स्थान पर अप्रशस्त होता जाता है। यह स्वीकार करना पड़ेगा कि कविता में कुछ ऐसा गिरह होनी चाहिये जिसके खोलने का नोवत आवे। जो कविता बिलकुल खुली होती है उसमें वह आनंद नहीं प्राप्त होता, जो गिरह वाली कविता की गुत्थी सुलझाने पर मिलता है। किन्तु यह गिरह या गाँठ दिल की गाँठ न हो जिसमें रस का अभाव होता है। सुनिये एक सुकवि क्या कहता है:-

सम्मन रस की खानि, सो हम देखा ऊख में।
ताहू में एक हानि, जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं।

कविता यदि द्राक्षा न बन सके तो रसाल ही बने, नारिकेल कदापि नहीं। साहित्य-मर्मज्ञों की यही सम्मति है। किसी किसी का यह कथन है कि भावावेश कितनों को दुरूहतर कविता करने के लिये वाध्य करता है। मेरा निवेदन यह है कि वह भावावेश किस काम का जो कविता के भाव को अभाव में परिणत करदे। भावुकता और सहृदयता की सार्थकता तभी है जब वह असहृदय को भी सहृदय बना ले। जिसने सहृदय को असहृदय बना दिया वह भावुकता और सहृदयता क्या है, इसे सहृदय जनही समझें।

छायावाद की कवितायें व्यंजना और ध्वनि-प्रधान होती हैं। वाच्यार्थ से जहां व्यंजना प्रधान हो जाती है वहीं ध्वनि कहलाती है। छायावाद की