होती है, वस्तुप्रधान (objective) नहीं। इसीसे उसमें सरसता, मधु- रता और मन मोहकता होती है। मैंने उनके लक्ष्य की ही बात कही है। मेरे कथन का यह अभिप्राय नहीं कि छायावाद के नाम पर जितने कविता करनेवाले हैं, उनको इस लक्ष्य की ओर गमन करने में पूरी सफलता मिलती है। छायावाद के कुछ प्रसिद्ध कवि ही इस लक्ष्य को सामने रख कर अपनी रचना को तदनुकूल बनाने में कुछ सफल हो सके हैं। अन्यों के लिये अब तक वह वैसा ही है जैसा किसी बामन का चन्द्रमा को छूना। किन्तु इस ओर प्रवृत्ति अधिक होने से इन्हीं में से ऐसे लोग उत्पन्न होंगे जो वास्तव में अपने उद्देश्य की पूर्ति में सफल होंगे। अभ्यास की आदिम अवस्था ऐसी ही होती है। किन्तु असफलता ही सफलता की कुंजी है। एक बात यह अवश्य देखी जाती है कि छायावाद के अधिकांश कवियों की दृष्टि न तो अपने देश की ओर है, न अपनी जाति और समाज की ओर, हिन्दू जाति आज दिन किस चहले में फंसा है, वे आँख से उसको देख रहे हैं पर उनकी सहानुभूति उसके साथ नहीं है। इसको दुर्भाग्य छोड़ और क्या कहें। जिसका प्रेम विश्वजनीन है वह अपने देश के जाति के, परिवार के कुटुम्ब के दुख से दुखी नहीं, इस को विधि-विडम्बना छोड़ और क्या कहें? श्रृंगारिक कवियों को कुत्सा करने में जिनकी लेखनी सहस्रमुखी बन जाती है, उनमें इतनी आत्म-विस्मृति क्यों है? इसको वे ही सोचें। यदि श्रृंगार-रस में निमग्र होकर उन्होंने देश को रसातल पहुंचाया तो विश्वजनीन प्रेम का प्रेमिक उनको संजीवनी सुधा पिला कर स्वर्गीय सुख का अधिकारी क्यों नहीं बनाता? जिस देश, जाति और धर्म की ओर उनकी इतनी उपेक्षा है, उनको स्मरण रखना चाहिये कि वह देश जाति और धर्म ही इस विश्वजनीन महामंत्र का अधिष्ठाता, स्रष्टा और श्रषि है। जो कवीन्द्र रवीन्द्र उनके आचार्य्य और पथ-प्रर्दशक हैं उन्हीं का पदानुसरण क्यों नहीं किया जाता? कम से कम यदि उन्हीं का मार्ग ग्रहण किया जाय तो भी निराशा में आशा की झलक दृष्टिगत हो सकती है। यदि स्वदेश-प्रेम संकीर्णता है तो विश्वजनीन-प्रेम की दृष्टि से ही अपने देश को क्यों नहीं देखा जाता? विश्व के अंतर्गत वह भी तो है।
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