पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
(६०३)

मानसिक उद्गार ओजमय होता है। इसलिये उनकी रचनाओं में भी यह ओज पाया जाता है। वे कभी कभी ऐसी रचनायें करते हैं जिनसे चिनगारियां कढ़ती दृष्टिगत होती हैं। परन्तु जब शान्त चित्त से कविता करते हैं तो उनमें सरसता और मधुरता भी पायी जाती है। उनकी कविता भावमयी के साथ प्रवाहमयी भी होती है। उनमें देश प्रेम भी है, एक पद्य देखिये:—

साक़ी

साक़ी मन घन गन घिर आये उमड़ी श्याम मेघमाला।
अब कैसा बिलम्ब तू भी भर भर ला गहरी गुल्लाला।
तनके रोमरोम पुलकित हों लोचन दोनों अरुण चकितहों।
नस नस नव झंकार कर उठे हृदय विकम्पित हो हुलसितहो।
कब से तड़प रहे हैं, ख़ाली पड़ा हमारा यह प्याला।
अब कैसा बिलम्ब साक़ी भर भर ला अंगूरी हाला।
और और मत पूछ दिये जा मुंह माँगे बरदान लिये जा।
तू बस इतना ही कह साक़ी और पिये जा और पियेजा।
हम अलमस्त देखने आये हैं तेरी यह मधुशाला।
अब कैसा बिलम्ब—
बड़े बिकट हम पीने वाले तेरे गृह आये मतवाले।
इसमें क्या संकोच लाज क्या भर भर ला प्याले पर प्याले।
हमसे बेढब प्यासों से पड़ गया आज तेरा पाला।
अब कैसा बिलम्ब—
तू फैला दे मादक परिमल जग में उठे मदिर रस छल छल।
अतल बितल चल अचल जगतमें मदिरा,

झलक उठे झल झल।