पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६२

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बिछोडवि=छुड़ाना, जाहि=जाते हो, तुहुँ=तू, हऊँ=हौं=हम, तेवई= तिवई=त्रिया, को=कौन, दोसु=दोष, पट्टिय=पट्टी, जद=यदि, नीसरहिं= निकले, जाणउँ=जानू, सरोसु=सरोष ।

ज्ञात होता है हिन्दी भाषा का निम्नलिखित दोहा, इसी पद्य को आधार मानकर रचा गया है, देखिये दोनों में कितना साम्य है

बाँह छुड़ाये जात हो निबल जानि कै मोहि ।
हियरे सों जब जाहुगे सबल बखानी तोहि ।

दोनों दोहों का भाव लगभग एक है, परन्तु शब्द विन्यास में अन्तर है। पहले दोहे के जितने शब्द हैं, सभी परिचित से ज्ञात होते हैं। उसके अनेक शब्द ऐसे हैं, जो अबतक हिन्दीमें प्रयुक्त होते हैं, विशेष कर व्रजभाषा की कविता में।

एक पद्य और देखिये-

अग्गिएं उपहउ होइ जगु वाएं सीअलु तेंव ।
जो पुणु अग्गिं सीअला तसु उपहत्तणु केंव ।

जग अग्नि से ऊष्ण और वायु से शीतल होता है। जो अग्नि से शीतल होता है, वह फिर ऊष्ण कैसे होगा।

अग्गिएं=अग्नि से, उपहउ=उष्ण, होइ=होता है, जग=जगत, वाएं=वायु सीअलु=शीतल, तेंव=त्यों, पुणु=पुनि तसु=सो, केवँ-क्यों।

अपभ्रंश भाषा की रचनाओं को पढ़कर उसके शब्दों का मैंने जो अर्थ लिख दिया है, उनको देखकर आपलोगों को यह ज्ञात हो जावेगा कि किस प्रकार हिन्दी का विकास अपभ्रंश भाषा से धीरे धीरे हुआ। इस समय हिन्दी भाषा का रूप बहुत विस्तृत है, उसका प्रसार बिहार से पंजाब तक और हिमालय से मध्यप्रदेश तक है । इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि उस पर दूसरी प्राकृतों के अपभ्रंश का कुछ प्रभाव नहीं है, परन्तु यह निश्चित है कि उसकी उत्पत्ति शौरसेनी अपभ्रंश से हुई है। चिरकाल