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तक हिन्दी भाषा का परिचय केवल भाषा कहकर ही दिया जाता रहा । हिन्दी भाषा के प्राचीन साहित्य ग्रन्थों में उसका भाषा नाम ही मिलता है, गोस्वामीजी रामायण में लिखते हैं 'भासाभणिति मोरि मत थोरी, अब भी पुराने विचार के लोग और प्रायः संस्कृत के पण्डित उसे भाषा ही कहते हैं । नागरी यद्यपि लिपि है, परन्तु पहले क्या अब भी बहुत से लोग 'हिन्दी' को नागरी कहते हैं, और नागरी शब्द को हिन्दी का पर्यापवाची शब्द मानते हैं । परन्तु हिन्दी संसार का पठितसमाज कम से कम पचास वर्ष से उसको 'हिन्दी' ही कहता है, और साधारणतया हिन्दी संसार क्या अन्यत्र भी अब वह इसी नाम से परिचित है। यहां यह प्रश्न हो सकता है कि इस हिन्दी नाम की कल्पना क्या आधुनिक है ! वास्तव में यह कल्पना आधुनिक नहीं है, चिरकाल से उसका यही नाम है. परन्तु यह सत्य है कि इस नाम के प्रयोग में भ्रान्ति होती आई है, और अव भी कभी कभी वह अपना प्रभाव दिखलाये बिना नहीं रहती। मुसल्मान जब भारतवर्ष में आये, और उन्हों ने जब दिल्ली एवं आगरे को अपनी राजधानी बनाई तो अनेक कार्य सूत्रसे उनको अपने आसपास की देशी भाषा का नाम करण करना पड़ा । क्योंकि फारसी, अरबी, अथवा संस्कृत तो देशभाषा को कह नहीं सकते थे और वास्तव में वह फारसी, अरबी अथवा संस्कृत थी भी नहीं, इसलिये उन्हों ने देशभाषा का नाम 'हिन्दी' रखा। यह नाम रखने का हेतु यह हुआ कि वे भारतवर्षको 'हिन्द' कहते थे, इसलिये इस देशकी भाषा को उन्होंने 'हिन्दी' कहना ही उचित समझा। कुछ लोग कहते हैं कि हिन्दू शब्द से ही हिन्दी शब्द बना, किन्तु यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि हिन्दू शब्द भी हिन्द शब्द से ही बना है । यद्यपि कुछ लोग यह बात नहीं मानते, और अन्य प्रकार से हिन्दू शब्द की व्युत्पत्ति करते हैं, परन्तु बहुमान्य सिद्धान्त यही है कि 'हिन्द' शब्द से ही हिन्दू शब्द बना है। क्यों यह सिद्धान्त वहुमान्य है, इस विषय में अपने एक व्याख्यान का कुछ अंश यहां उठाता हूं
“हिन्दी शब्द उच्चारण करते ही, हृदय उत्फुल्ल हो जाता है, और नस नस में आनन्द की धारा बहने लगती है। यह बड़ा प्यारा नाम है, कहा जाता है, इस नाम में घृणा और अपमान का भाव भरा हुआ है, परन्तु जी इसको