भी बदलते हैं। परन्तु नियम ही बदलते हैं, यह नहीं होता कि उसका कुछ नियम ही न हो। ऐसी अवस्था में नियम का त्याग नहीं हो सकता।
कहा जाता है कि स्वतंत्र विचार वाले परतंत्रता कभी स्वीकार नहीं करते। एक सज्जन कहते हैं कि जो लोग उच्छृङ्खलता का राग अलापते हैं उनको सोचना चाहिये कि उच्छृङ्खलता शब्द ही में बंधन और परम्परागत पराधीनता का भाव भरा है। उनसे मेरा यह निवेदन है कि नियम के भीतर रह कर जो आवश्यक सुधार अथवा परिवर्तन किये जाते हैं उनको कोई उच्छृङ्खलता नहीं कहता। मनमानी करना ही उच्छृङ्खलता है। इसी मनमानी से सुरक्षित रहने के लिये ही नियम की आवश्यकता होती है। फिर उसमें क्या बंधन है और क्या परम्परागत पराधीनता? प्रतिभावान और साहित्य-मर्मज्ञ जिस मार्ग पर चलते हैं उसका विरोध कुछ काल तक भले ही हो, परन्तु काल पाकर उनकी प्रणाली आदर्श बन जाती है और उसी पर लोग चलने लग जाते हैं। अतएव विचारणीय यह है कि क्या साहित्य-पारंगत और मर्मज्ञ जन उन्मार्गगामी होते हैं? मेरा विचार है वे उन्मार्गगामी नहीं होते। वे सत्पथ-प्रदर्शक होते हैं। इसी लिये उनके पथ पर स्वीकृति की मुहर लग जाती है। इसका विरोध मैं नहीं करता और न यह बात है कि मैं इस स्वाभाविकता को स्वीकार नहीं करता हूं। मेरा कथन यह है कि जो विविधरूपता और अनियमवद्धता साहित्य में दिखलायी दे रही है उसका प्रतिकार किया जावे। और खड़ी बोलचाल की कविता की ऐसी प्रणाली निश्चित की जावे जिसमें एक रूपता हो, जो एक प्रकार से सर्वमान्य हो सके। इसी बात को सामने रख कर मैं कुछ ऐसे प्रयोग भाषा मर्मज्ञों के सामने रखता हूं जिन पर विचार होने की आवश्यकता है। यदि वे प्रयोग उचित हैं तो जाने दीजिये, मेरी बातों को न सुनिये। यदि अनुचित हैं तो उचित मीमांसा होकर उनके विषय में कोई सिद्धान्त निश्चित कीजिये।
आजकल उर्दू में जिसको रोज़मर्रा कहते हैं उसकी परवा हिन्दी रचनाओं में, विशेषकर आधुनिक खड़ी बोली की कविताओं में, कमको