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अधिक आनन्द मिल सकता है—इन समस्याओं की व्याख्या जितनी उत्तमता से गद्य में हो सकती है उतनी पद्य में नहीं। आयुर्वेद विज्ञान, व्याकरण आदि विषयों के सम्बन्ध में भी यही बात कही जा सकती है।
हिन्दी साहित्य में गद्य का विकास बहुत विलम्ब से हुआ। इसका प्रधान कारण यह है कि शासकों की ओर से हिन्दी गद्य के विकसित होने के लिये सुविधायें नहीं प्रस्तुत की गयीं। हिन्दू राजाओं ने अपने दरबार में हिन्दी कवियों को तो आश्रय दिया किन्तु कोई ऐसा काम नहीं किया जिससे हिन्दी गद्य को उमड़ने का अवसर मिलता। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि हिन्दू समाज का जीवन इतनी संकुचित परिधि के भीतर व्यतीत हो रहा था कि अधिकांश में उनका ध्यान ही उन दिशाओं में आकर्षित नहीं हो सकता था जिनमें गद्य की प्रगति होती है। हिन्दी गद्य का विकास संभव है, मुगल राजत्वकाल में कुछ अग्रसर होता किंतु टोडरमल ने अदालतों में हिन्दी का बहिष्कार कर के उसे जनता की दृष्टि में प्रायः सवथा अनुपयोगी सिद्ध कर दिया। ऐसे समाज में जिसमें संस्कृत की तुलना में हिन्दी योही निगहन थी, जिसमें केशव तुलसी आदि समर्थ कवियों ने भी विद्वानों के विरोध की अवहेलना सकुचते हुये ही किया और जिसमें अब तक अधिकांश में उतना ही गद्य साहित्य प्रस्तुत हो सका था जितना भक्तों और धार्म्मिक नेताओं ने अपने श्रद्धालु किन्तु साधारण विद्या बुद्धि के श्रोताओं और पाठकों के लिये टीका-टिप्पणी अथवा कथा वार्ता के रूप में प्रस्तुत किया कवहरियों में हिन्दी का बहिष्कार बहुत ही हानि कारक मनोवृत्ति का उत्पन्न करने वाला सिद्ध हुआ। यदि हिन्दी को राजाश्रय प्राप्त रहता तो संभवतः हिन्दू समाज में हिन्दी का सम्मान थोड़ा बहुत बढ़ता और उससे संस्कृत के धुरंधर विद्वानों को भी हिन्दी में शास्त्रीय विवेचना आदि में प्रवृत्त होने का प्रलोभन प्राप्त होता प्रतिभाशाली हिन्दु लेखकों ने जिस प्रकार के विकास में सहायता पहुँचाई उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि समाज में हिन्दी की तिरस्कृत अवस्था भी हिन्दी-गद्य को प्रगति में अत्यन्त वाधक सिद्ध हुई।