पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६३४

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तीसरा प्रकरणा।
बिकास-काल।

गोरखनाथ के बाद लगभग दो शताब्दियां गद्य-रूपी नव जात पौधे के लिये मरुभूमिसी सिद्ध होकर बोत गयीं। सोलहवीं शताब्दी में महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य ने राधा-कृष्ण विषयक भक्ति का एक प्रवल स्रोत उत्तरी भारत में प्रवाहित किया। इस अपूर्व प्रवाह ने हिन्दू समाज के हृदय को इतना अधिक आकर्षित किया कि थोड़े ही काल में कृष्णावत सम्प्रदाय की विशाल मण्डली उत्तरीय भारत में अतुल प्रभाव-विस्तार करती जन समुदाय को दृष्टिगत हुई। उसी समय महाप्रभु के पुत्र गोस्वामी बिट्ठलनाथ ने 'राधाकृष्ण-विहार' नाम की एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक की भाषा व्रजभाषा है, किंतु कहीं कहीं उसमें अन्य प्रान्तीय शब्दों का भो समावेश कर लिया गया है। निम्नलिखित अवतरण देखिये :—

'जम के सिषर पर शब्दायमान करत है, विविध वायु बहत है, हे निसर्ग स्नेहार्द्र सषी कूं संबोधन प्रिया जू नेत्र कमल कूं कछुक मुद्रित दृष्टि होय कै बारंबार कछु सखी कहत भई यह मेरो मन सहचरो एक क्षण ठाकुर को त्यजत भई।" इस छोटे से अवतरण में 'शब्दायमान', 'त्रिविध', 'निसर्ग, 'स्नेहार्द्र', 'नेत्र', 'मुद्रित', 'दृष्टि', 'श्रण', आदि संस्कृत शब्दों का प्रयोग स्वतंत्रता के साथ किया गया है। श्री मद्भागवत का प्रचार और राधा-कृष्ण-लीला का साहित्य क्षेत्र में विषय के रूप में प्रवेश करना ही इस संस्कृत-शब्दावली को लोक-प्रियता तथा उसके फल-स्वरूप हिंदी गद्य में उसके स्थान पाने का कारण जान पड़ता है। प्रान्तीय भाषाओं के प्रभाव भी उक्त अवतरण में दिखायी पड़ते हैं, 'पै' के स्थान में 'पर' और 'को', 'कौ' अथवा 'कौं' के स्थान पर 'कूं' का प्रयोग ऐसे ही प्रभावों का परिणाम है। गोस्वामी विट्ठलनाथ के पुत्र गोस्वामी गोकुलनाथ ने भी २५२ एवं ८४ वैष्णवों की वार्ता नामक दो ग्रंथ बनाये जिनमें उन्होंने बहुत मधुर भाषा में उक्त वैष्णवों के सम्बन्ध में कुछ ज्ञातव्य बातें लिखीं। गोस्वामीजी की भाषाके दो नमूने दिये जाते हैं :—