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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६४८

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राजा तुम्हारे पितामह ज्ञानी थे। उन्होंने यज्ञ में जिसे जैसा देखा तैसा काम दिया।"

२-'इतना कह महादेव जी गिरिजा को साथ ले गंगा तीर पर जाय.नोर में न्हाय,न्हिलाय,अति लाड़ प्यार से लगे पार्वती जी को वस्त्र-आभूषण पहिराने।”
३-'तिस समय घन जो गरजता था सोई तो धौंसा बजता था और वर्ण -वर्ण की घटा जो घिर आती थी. सोई शूरबीर रावत थे.तिनके बीच बिजलो को दमक शस्त्र की सो चमकती थी, बगपाँत ठौर ठौर ध्वजा सो फहराय रही थी. दादुर मोर कड़खैतों की भांति यश बखानते थे और बड़ी बड़ी बूंदों की झड़ी बाणों की सी झड़ी लगी थी।'
४–बालों की श्यामता के आगे अमावस्या को अँधेरी फीकी लगने लगी। उसकी चोटी सटकाई लब नागिन अपनी कंचलो छोड़ सटक गयी। भौंह को बँकाई निरख धनुप धकधकाने लगा। आंखों की बड़ाई चंचलाई पेख मृग मीन खंजन खिसाय रहे।'
लल्लू लाल को कहानी कहनी थी । ऐसी अवस्था में भाषा की रोचकता और सरसता विषय के सर्वथा उपयुक्त है। फिर भी सैयद इंशा अल्ला खां की भाषा से उनकी भाषा की तुलना करने पर दोनों का वास्तविक अंतर प्रकट हुये बिना नहीं रहेगा। लल्लू लाल जो की भाषा में विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि उन्होंने प्रेम सागर में फारसी शब्दों का प्रयोग बिल्कुल ही नहीं किया है.यद्यपि उनके 'सिंहासन बतीसी'नामक ग्रंथ में यह प्रवृत्ति नहीं पाई जाती। लल्लूलाल जी आगरे के रहने वाले थे.इसलिये उनकी रचना में ब्रजभाषा के शब्दों की भरमार होना स्वाभाविक था। उस समय भाषा का कोई सर्वमान्य आदर्श उनके सामने नहीं था. जिस प्रकार सदासुख लाल और इंशा अल्लाह खां ने अपने अपने अनुमित विचार के अनुसार अपने अपने ग्रंथों को हिन्दी भाषा रखी. उसी प्रकार लल्लू लाल जो ने भी प्रेम सागर को अपनी