यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(६३६)
राजा वो ऋषियों को नेवत बुलाया। लगन के समय सबों को साथ ले मंडप में जहाँ सोनन्ह के थम्भ पर मानिक दीप बलते थे जा पहुँचे।
२- इतने में जहाँ से सखी सहेली और जात भाइयों की स्त्री सब दोड़ी हुई आई,समाचार सुनि जुड़ाई.मगन हो हो नाचने गाने बजाने लगों वो अपने अपने देह से गहना उतार उतार सेवकों को देने लगीं और अगणित रुपया अन्न वस्त्र राजा रानो ने ब्राह्मणों को बोला बोला दान दिया। आनंद बधावा बाजने लगा। ३-राजा रघु ऐसे कहते हुये वहां से तुरन्त हर्षित हो उठे। वो भीतर जा मुनि ने जो आश्चय बात कही थी सो पहिले रानी को सब सुनाई। वह भी मोह से ब्याकुल हो पुकार रोने लगी वो गिड़गिड़ा कहने कि महागज,जो यह सत्य है तो अब हो लोग भेज लड़के समेत झट उसको बुला ही लोजिये क्यों कि अब मारे शोक के मेगे छाती फटती है।कब में सुन्दर बालक सहित चंद्रावती के मुंह को जो वन के रहने से भोर के चन्द्रमा सा मलीन हुआ होगा देखो गो।'
उक्त अवतरणों के चिन्हित शब्दों को देखने एर आप को यह स्पष्ट हो जायगा कि सदल मिश्र की भाषा न तो लल्लू लाल की भाषा की तरह ब्रजभाषा के शब्दों से भरी है न शुद्ध खड़ी बोली है. वह दोनों को बीच की है। ऐसा होना परिवर्तन काल की भाषा के लिये स्वाभाविक था।सदल मिश्र कहीं ब्राह्मण का बहुवचन ‘ब्राह्मणां' लिखते हैं और कहीं'सोन' का बहुवचन मोनन्ह'। आश्चय बात वो' आदि शब्दों का प्रयोग भी वे करते हैं। संस्कृत के तत्सम शब्द भी उनकी रचना में आये हैं.'नृप' 'स्त्री' ,'अगणित', 'शोक', 'चन्द्रमा, आदि शब्द इसके प्रमाण हैं।सम्बो सहे टो' जात भाइयों' आदि दोहरे पदों का प्रयोग भो उन्होंने किया है।इसी समय हिन्दी गद्य के विस्तार का एक मार्ग और खुला । सन