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हिन्दी के विकास के विषय में और बातों के लिखने के पहिले यह आवश्यक जान पड़ता है कि आर्यभाषा परिवार की चर्चा की जावे । क्योंकि इससे हिन्दी सम्वन्धी बहुतसी बातों पर प्रकाश पड़नेकी सम्भावना है। डाकर जी० ए० ग्रियर्सन ने लन्दन के एक बुलेटिन में इस विषय पर एक गवेषणापूर्ण लेख सन १९१८ में लिखा है. उसी के आधार से मैं इस विषय को यहां लिखता हूं, कुछ और ग्रन्थों से भी कहीं कहीं सहायता ली गई है।
भारत की भाषाओं के तीन विभाग किये जा सकते हैं, वे तीन भाषायें ये हैं-
१ आर्यभाषायें २ द्रविड़भाषायें ३ और अन्य भाषायें । अन्य भाषाओं के अन्तर्गत मुण्डा और तिब्बत वर्मन भाषायें हैं, द्राविड़ भाषा मुख्यतः दक्षिण में बोली जाती है । आर्यभाषा उत्तरी मैदानों में फैली हुई है, गुजरात और महाराष्ट्र प्रान्त में भी उसका प्रचलन है, उसके अन्तर्गत अधिकांश पहाड़ी भाषायें भी हैं। हिन्दूकुश के दक्षिणी पहाड़ी देशों में एक चौथी भाषा भी पाई जाती है, जिसको डार्डिक अथवा वर्तमानकालिक पिशाचभाषा कहते हैं।
१ मध्यदेशीय भाषा उत्तरीय भारत के मध्य में और उसके चारों ओर फैली हुई है, साधारणतया यह पश्चिमी हिन्दी कहलाती है। बांगड़ , व्रजभाषा, कन्नौजी, और बुन्देलखण्डी भाषाएँ इसके अन्तर्गत हैं। बांगड़, या. हरियानी यमुना के पश्चिम में पूर्व दक्षिणी पंजाब की भाषा है, यह मिश्रित भाषा है, जिसमें हिन्दी, पंजाबी और राजस्थानी सम्मिलित हैं। ब्रजभाषा मथुरा के चारों ओर और गंगा दोआबा के कुछ भागों में बोली जाती है, इसका साहित्य भाण्डार वड़ा विस्तृत है। कन्नौज के आस पास