सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

( ६५९ )

जहां इस पत्र द्वारा वे यह उद्देश्य सिद्ध करना चाहते थे कि शिक्षित लोगों का ध्यान हिन्दी साहित्य की ओर आकर्षित हो, वहाँ उन्हें इसवात का भी ध्यान बना रहता था कि हिन्दी-प्रदीप' में हीन श्रेणी की साहित्य-सामग्रो न निकले ! अतएव उन्होंने व्यंग्यात्मक रोचक निबंध और शिक्षा-प्रद उपन्यास आदि से ही उसका कलेवर भरा। पं० बालकृष्ण भट्ट के हृदय में देश की दुर्दशा के कारण बहुत अधिक पीड़ा थी। इससे उनके व्यंग्यों में हृदय के मर्म-स्थल पर आघात करने की ऐसी शक्ति देखी जाती है जिसका प्रभाव उनके समसामयिक समस्त लेखकों पर पाया जाता है। पं० प्रताप नारायण मिश्र जैसे कुछ उदात्त विचार के लोगों की बात दूसरी है। अतएव भाषा के सम्बन्ध में उन्होंने जो नीति ग्रहण की उससे उनकी व्यंग्यात्मक शैलीके विकासमें बहुत अधिक सहायता मिली; क्योंकि तत्कालीन पठित समाज की बोलचाल पर उदृ का गहरा रंग चढ़ा होने के कारण व्यंग्य को प्रभावशाली बनाने के लिये फारसी अग्बी के प्रचलित शब्दों का अङ्गीकार अनिवार्यतः आवश्यक था । वे ‘कपार', 'धीरज', 'निरी'. 'पैनी' आदि शब्दों का प्रयोग भी करते हैं, मेहरिया, तिथ' आदि शब्दों का प्रयोग करते पं० प्रताप नारायण जी को भी देखा जाता है । पं० गोविन्द नारायण मिश्र को ग्चना का दूसरा अवतग्ण देखिये, उसमें जिन शब्दों पर चिन्ह बना दिया गया है. वे सब ब्रजमापा के शब्द हैं, और उनका प्रयोग भो ब्रजभाषा की भांति किया गया है, वे लौ का व्यवहार भी करते थे। प्रेमघन जी के गदा में भी भई, तम्गन, इत्यादि शब्दों का प्रयोग मिलता है। इसमें पाया जाता है कि इन लोगों के समय में भी जैसा चाहिये वैसा भाषा का परिष्कार नहीं हुआ था । वाक्य भी उन लोगों के अशुद्ध हैं. जिनपर मैंने लम्बी लकीरें खींच दी हैं, उनको देखिये । बाबू हरिश्चन्द्र की रचना में भी ये बातें पाई जाती हैं। पंडित अम्बिकादत्त ब्यास और गोस्वामी राधाचरण की लेख माला में भी ए दोष देखे जाते हैं। इससे इस सिद्धान्त पर उपनीत होना पड़ता है, कि उस समय पूर्ण उन्नत होनेपर भी जेसा चाहिये वसा गद्य परिष्कृत नहीं हुआ।