पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(६८०)

में छपे हुये हिन्दुस्तानी भाषा के ग्रन्थों को पढ़ कर हिन्दू के लड़क उन्हें हिन्दी हो का ग्रन्थ समझते थे, उर्दू का नहीं। इससे भी बोल चाल की ओर प्रवृत्ति होने में, हिन्दी को बड़ा अवसर मिला. वह संकुचित होने के स्थान पर अधिक विस्तृत हो गयी। बाबू देवकीनन्दन खत्री के उपन्यास इसी परिणाम के फल हैं । आजकल के अनेक उपन्यास भी .इसी मार्ग पर चल कर हिन्दी भाषा के विस्तार में सहायक हो रहे हैं । इसलिये मेरा विचार है कि उस समय के हिन्दी भाषा के प्रचार में पं० लक्ष्मीशङ्कर एम०ए० का भी विशेष हाथ है-उनके गद्यका एक नमूना देखियेः-

  “इस ज़मीन पर और इस जहान में जिसमें कि हम लोग रहते हैं लाखों अजोब चीजें हमेशा दिखलाई देती हैं और हर रोज़ नई बातें हुआ करती हैं । जो कुछ कि इस जहान में होता है. उसे गौर से देखने और उसके सब को सोचने से जुरूर बड़ा फायदा होता है। बिजली के सब नियमों के जानने से कैसा फायदा हुआ है कि हज़ारों कोस की दूरी पर मुल्क मुल्क में पल भर में तार के सबब से खबर पहुंचा सकते हैं । भाफ़ के ज़ोर से कैसी अच्छी तरह से रेलगाड़ी और धूआंकश चलते हैं। ,
  २०-काशी निवासी बाबू देवकीनंदन खत्री के चन्द्रकान्ता' और'चन्द्रकान्ता सन्तति' नामक उपन्यासों से भी हिन्दी माषा के प्रचार में कम सहायता नहीं मिली । इस समय इनके उपन्यासों ने इतना प्रचार पाया. कि उससे उपन्यास क्षेत्र में युगान्तर उपस्थित हो गया। बहुत से लोगों ने उस समय हिन्दो इमलिये पढ़ो कि वे चन्द्रकान्ता को पढ़ सकें। इन उपन्यासों की भाषा हिन्दुस्तानी है. केवल विशेषता इतनी ही है कि उसमें यथावसर संस्कृत के तत्सम शब्द भी आते हैं। भाषा चलली और मुहाविरेदार है, इसलिये भी उसकी अधिक पूछ हुई। इन उपन्यासों में चमत्कृत घटनाओं का ही ऊहापोह और विस्तार है । उपदेश. शिक्षा और धार्मिक अथवा सामाजिक आघात प्रतिघात से उनको कोई सम्बन्ध नहीं रहा, फिर भी उनमें इतना आकर्षण है. कि हाथ में लेकर उन्हें समाप्त किये बिना चैन नहीं आता। उनके गद्य का एक अंश देखिये:-