(६९३)
देखी जाती है। ऐसे उपयोगी अनेक सामाजिक नाटकों की आवश्यकता हिन्दू समाज को है। इसके बाद वे नाटककार आते हैं, जिन्होंने नाटक कम्पनियों के आश्रय में रहकर नाटकों की र चना की। वे हैं पंडित राधेश्याम, बाबू हरिकृष्ण जौहर ओर आगाहश्र आदि। इन लोगों ने भी अनेक नाटकों की रचना करके हिन्दो साहित्य की सेवा की है। इनमें से पंडित राधेश्याम और वाबू हरिकृष्ण जोहर के नाटक अधिक प्रसिद्ध हैं । इनमें भावुकता मी पाई जाती है और हिन्दू संस्कृति की मर्यादा भी । अन्य नाटकों में रूपान्तर से हिन्दू संस्कृति पर प्रहार किया गया है औरस्थान स्थान पर ऐसे अवांछनीय चरित्र अंकित किये गये हैं जो प्रशंसनीय नहीं कहे जा सकते। रंगमंच पर कारण-विशंप सं वे भले ही सफलता लाभ कर लें, पर उनमें सुरुचि पर छिपी लगे चलती दृष्टिगत होती है । इस दोप से यदि कोई प्रसिद्ध नाटककार मुक्त है तो वे हैं पंडिल माधव शुक्ल । उनको आर्य संस्कृति की ममना है। उनका 'महाभारत' नामक नाटक इसका प्रमाण है। इनके विचार में स्वातंत्र्य होने का कारण यह है कि वे किसो पार मो नाटक-मण्डला के अधीन नहीं हैं। वे उत्तम गायक और वाद्यकार ही नहीं हैं, नट-कला में भी कुशल हैं और सरस कविता भो करते हैं। दुःख है. कि हिन्दी संसार में अबतक बंगाली नाटककार द्विजेन्द्रलाल गय और गिरीश चन्द्र का समकक्ष कोई उत्पन्न नहीं हुआ। साहित्य के इस अंग की पूर्ति के लिये समय किसी ऐसे नाटककार ही की प्रतीक्षा कर रहा है। बाबू हरिश्चन्द्र के नाटक छोटे ही हां, पर उनमें जो देश-प्रेम जाति-प्रेम तथा हिन्दू संग कृति का अनुगग झलकता है. आजकल के नाटकों में वह विशेषता नहीं दृष्टिगत हाती। श्री निवाम दास के नाटकों में विशेष कर रणधीर प्रम मोहिनी' में जो स्वाभाविक आकर्षण है वेसा आकर्षण आज कल के नाटकों में कहां ? थे बातें उन्हीं 'नाटकों में पैदा हो सकती हैं जो चलती भाषा में लिखे गये हों और जिनके पद्यों में वह शक्ति हो कि उन्हें सुनते ही लोग मंत्र मुग्ध वन जावें। परमात्मा करे ऐसे नाटककार हिन्दी क्षेत्र में आयें. जिससे देश, जानि और समाज का यथोचित हित हो सके।