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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/७१५

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आप सुकवि थे, परन्तु जीवन के दिन थोड़े पाये. बहुत जल्द संसार से चल बसे। भाई परमानंद एम० ए० ने योरप का एक सुन्दर इतिहास लिखा है और प्रसिद्ध वोर बन्दे गुरु का एक इतिवृत्त भो रचा है। आप एक प्रसद्धि विद्वान् हैं और हिन्दू जाति पर उत्सर्गी कृत जोवन हैं। इस लिये आप के ये दोनों प्रथ हिन्दू दृष्टि-कोण से ही लिखे गये हैं. जो बड़े उपयोगी हैं।

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धर्म-ग्रंथ

आर्य सभ्यता धर्म पर अवलम्बित है। धर्म हो उसका जीवन है और धर्म ही उसका चरम उद्देश्य । धर्म का अर्थ है धारण करना । जो समाज को, देश को, जाति को उचित रोति से धारण कर सके उसका नाम धर्म है। व्यक्ति की सत्ता धर्म पर अवलम्बित है। इसीलिये वैशेषिक दर्शनकार ने धर्म का लक्षण यह बतलाया है:-

यतोऽभ्युदयनिःश्रेयस् सिद्धिः सधर्म:

जिससे अभ्युदय अर्थात् बढ़तो और निःश्रेयम् अर्थात् लोक परलोक दोनों का कल्याण हो उसी का नाम है धर्म । आर्य जाति और आर्य सभ्यता इसी मन्त्र का उपासक प्रचारक एवं प्रतिपालक है। किन्तु दुःख है कि आजकल धर्म के नाम पर अनेक अत्याचार किये जा रहे हैं। अतएव कुछ लोग धर्म की जड़ खोदने के लिये मी कटिबद्ध हैं। वे अधम्म को धर्म समझ रहे हैं, यह उनकी भ्रान्ति है सामयिक स्वार्थ परायणता,अन्ध-विश्वास और दानवी वृत्तियों के कारण संसार में जो कुछ Religion और मजहब के नाम पर हो रहा है वह धर्म नहीं है. धर्माभास भी नहीं है। वह मानवीय स्वार्थ परायणता और अहम्मन्यता का एकनिन्दनीयतम कार्य है जिसपर धर्म का आवरण चढ़ाया गया है। वैदिक धर्म अथवा आर्य सभ्यता न तो उसका पोषक है और न उसका पक्षपाती। जो कुछ आजकल हो रहा है वह अज्ञान का अकाण्ड ताण्डव है। उसको कुछ भारतीय धर्मपरायण सजनों ने समझा है और वे उसके