पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/७२०

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है। हास्य-सम्बन्धी लेख प्रायः अश्लील हो जाते हैं। इसका परिणाम सुफल न होकर कुफल होता है। हास्यरस में तरलता है, गंभीरता नहीं। अतएव गंभीर लेखक उसको ओर प्रवृत्त नहीं होते। हसी के लेखों में प्रायः रांग से काम लिया जाता है। यह व्यंग मर्यादाशीलता का वांधक है, झगड़े का घर भी। इससे भी लोग उससे बचते हैं। परन्तु जीवन में हास्यरस की भी बड़ी आवश्यकता है। इस लिये उसका त्याग नहीं हो सकता। सभाओं में देखा जाता है कि जिस व्याख्यान दाता में हँसाने को शक्ति नहीं होतो वह जनता पर जैसा चाहिये वैसा अधिकार नहीं कर सकता । जो लोग अपने ब्याख्यानों में समय समय पर लोगों को हँसाते रहते हैं, अधिकतर सफलता उन्हीं को मिलती है। हास्यरस के ग्रंथ आनन्द के साधन होते हैं। इस लिये ऐसे ग्रंथों की आवश्यकता भी साहित्य के लिये होती है। समाज के कदाचारों और अंधविश्वासों पर मीठी चुटकी लेने और उन पर व्यंगपूर्ण कटाक्ष करने के लिये हास्यग्स के ग्रंथ ही विशेष उपयोगी होते हैं यदि अश्लोलता न आने पावे और उनमें ईर्ष्या द्वेष का भंग न हो। पंडित जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी इस कला में कुशल हैं, हिन्द। संसार उनको हास्यरसावतार कहता है। उनका कोई ग्रंथ हास्यरस का नहीं है-परन्तु जितने लेख उन्होंने लिखे हैं. और जो प्रथ बनाये हैं उन सबों में हास्यरस का पुट मौजूद है। आप सहृदय कवि भी हैं. आपकी कविताओं में भी हास्यग्स का रंग रहता है। आप जिस सभा में उपस्थित होते हैं. उसमें ठहाका लगता ही रहता है. बात बात में हँसाना आपके बायें हाथ का खेल है ।।

  हिन्दी संसार में हास्य रस-सम्बन्धी रचना करने के लिये जी० पी० श्री वास्तव अधिक प्रसिद्ध हैं । उनके रचित नाटकों में हास्यरस की पर्याप्त मात्रा होती है । बाबू अन्नपूर्णानन्द ने हास्यरस के दो ग्रंथ लिखे हैं, जिनमें से एक का नाम है 'मगन रहु चोला'। ये दोनों भी हास्यरस के उत्तम ग्रंथ हैं। उनके पढ़ने में जी लगता है और उनसे आनन्द भी मिलता है । ग्रंथ अच्छे ढंग से लिखे गये हैं और उपयोगी हैं। यदि ये ग्रंथ अधिक संयत होते तो बहुन अच्छे होते । पं० शिवरत्न शुक्ल ने भी परिहास-प्रमोद