सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।



( ६४ )

वर्तमान पिशाच भाषा की विशेषतायें भी इसमें मिलती हैं । थरेली और कच्छी दोनों मिश्रित भाषायें हैं । पहली भाषा थारू में बोली जाती है, और यह परिवर्तनशील है, क्योंकि सिंधी भाषायें धीरे धीरे राजस्थानी मारवाड़ी द्वारा प्रभावित होती जाती हैं । कच्छी कच्छ में बोली जाती है, इसमें सिन्धी और गुजराती का मिश्रण है। सिन्धी में साहित्य है, परन्तु थोड़ा । थरेली को 'बरोची, और ढाटका भी कहते हैं, थलसे थरु शब्द बना है, इस शरु में बोले जाने के कारण ही 'थरेली, नाम की रचना हुई है । सिरादकी को कुछ सिंधी पृथक् बोली मानते हैं। अब्दुल लतीफ़ नाम का एक प्रसिद्ध कवि ईस्वी अठारहवीं सदी में हो गया है। उसने जो ग्रन्थ रचा है, उसका नाम 'शाहजी रिसालो. है। इसमें सूफी मत के सिद्धान्तों की छोटी छोटी कथायें लिख कर समझाया गया है । सिंधी इसको सिंध का हाफ़िज़ कहते हैं । इस भाषा में वीररस की कुछ सुन्दर कवितायें भी मिलती हैं ।

पैशाची भाषाके विषय में पहले कुछ चर्चा हो चुकी है, उसके सम्बन्ध की विशेषता यहां लिखी जाती है । वर्तमान पिशाच भापा के बोलनेवाले दक्षिण में काबुलनदी के पास और उत्तर पश्चिम और हिमालय की नीची श्रेणियों में और उत्तर में हिन्दूकुश एवं मुस्तग श्रेणियों के बीच में रहते हैं। इसके तीन विभाग हैं, काफिर, खोआर और डर्ड । काफ़िरके बोलनेवाले काफ़िरिस्तान में रहते हैं, बशगली इनकी प्रसिद्ध भाषा है, डेविडसन ने इस पर एक अच्छा व्याकरण लिखा है, कोनो ने इस भाषा का एक कोश भी लिख दिया है। इसके बोलनेवाले काफिरिस्तान की वशगल नामक तराई में रहत हैं, इसीसे इसका नाम वशगली है । इसके दक्षिण में वाई-काफ़िर रहते हैं, जिनकी बोली बाई-अला है. इसमें और वशगली में बड़ी घनिष्टता है । 'वेरों' बशगली के पश्चिम की दुगम घाटियों में रहनेवाले प्रेशओं की भाषा है, इसमें और बशगली में बड़ा अन्तर है। वेरों में जैसी कि स्थिति संकेत करती है, अन्य भाषा की अपेक्षा ईरानियन प्रभाव ही अधिक है-जैसे कि 'ड' का 'ल' में बदल जाना। परन्तु दूसरी ओर यह उच्चारण में डार्ड भापा से मिलती है, जो बात और काफ़िर भाषाओं में नहीं पाई जाती। गवरवटी या गत्रभाषा गबेरों की भाषा है जो कि