पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/९६

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आपलोगों ने सब सम्मतियाँ पढ़ लों, अधिकांश सम्मति यही है कि 'को' की उत्पत्ति 'कृते' से है। 'को' का प्रयोग कर्मकारक में तो होता ही है, संप्रदान के लिये भी होता है, संप्रदान की एक विभक्ति 'केलिये' भी है। कृते' में यह निमित्तार्थक भाव भी है. जैसा कि ऊपर दिखलाया गया है । इस लिये मैं भी ‘कृते' से ही 'को' की उत्पत्ति स्वीकार करता हूं ।

(३) करण और अपादान कारक की विभक्ति हिन्दीभाषा में 'से' है। करण कारक के साथ 'से' प्राय: उसी अर्थ का द्योतक है, जिसको संस्कृत का 'द्वारा' शब्द प्रकट करता है, इस 'से' में एक प्रकार से सहायक होने अथवा सहायक बनने का भाव रहता है। यदि कहा जाये कि 'वाण से मारा' तो इसका यही अर्थ होगा कि वाण द्वारा अथवा वाण के सहारे से या वाण की सहायता से मारा। परन्तु अपादान का 'से, इस अर्थ में नहीं आता, उसके 'से' में अलग करने का भाव है। जब कहा जाता है 'घर से निकल गया' तो यही भाव उससे प्रकट होता है कि निकलने वाला घर से अलग हो गया। जब कहते हैं 'पर्वत से गिरा' तो भी वाक्य का 'से' पर्वत से अलग होने का भाव ही सूचित करता है। 'से' एक विभक्ति होने पर भी करण और अपादान कारकों में भिन्न भिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता है । 'बंगभाषा और साहित्य' कार लिखते हैं--"प्राकृत में 'हिंतो' शब्द पञ्चमी के बहुवचन में व्यवहृत होता है. इसी 'हिंतो' शब्द से बँगला 'हइते' की उत्पत्ति हुई है" उन्होंने प्रमाण के लिये वररुचि का यह सूत्रभी लिखा है 'भावो हितो सुतो'। ब्रजभाषा में 'से' का प्रयोग नहीं मिलता उसमें तें का प्रयोग 'से' के स्थान पर देखा जाता है। 'से' के स्थान पर कबीर दास को 'सेती' अथवा 'सेंती' औ चंदवरदाई को 'हुंत' लिखते पाते हैं। इससे अनुमान होता है कि जैसे बँगला में 'हिंतो' से हइते बना उसी प्रकार हिन्दी में 'हुंत' और 'तें'। और ऐसे ही 'सुंतो' के आधार से 'सेंती' और से। कुछ विद्वानों की यह सम्मति है कि संस्कृत के 'सह' अथवा सम से 'से' की उत्पत्ति हुई है। करण में सहयोग का भाव पाया जाता है, ऐसी अवस्था में उसकी विभक्ति की उत्पत्ति 'सह' से होने की कल्पना स्वाभाविक