पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१०३

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और अलंकार उसे शोभित[१] करते हैं—उसे उत्कृष्ट बनाते हैं। इसी बात को वामन ने स्पष्ट शब्दों में यों लिखा है कि "काव्यशोभायाः कर्त्तारो धर्मा गुणाः; तदतिशयहेतवस्त्वलङ्काराः"; अर्थात् काव्य की शोभा के जनक—काव्य[२] में काव्यत्व लानेवाले—धर्मों का नाम गुण है, और उस शोभा को—उस काव्यत्व को—उत्कृष्ट बनानेवाले धर्मों का नाम है अलंकार।

पर, जब 'ध्वनिकार' ने काव्य के आत्मा[३] ध्वनि (व्यंग्यों) का और उनमें से भी प्रधान रस का अन्वेषण करके उसका स्वरूप स्पष्ट कर दिया, तब लोगों के विचारों में परिवर्त्तन हुआ।


  1. 'काव्यशोभाकरान् धर्मानलङ्कारान् प्रचक्षते।'—काव्यादर्श।
  2. काव्यप्रकाश के अनुसार इस सूत्र की यही व्याख्या है।
  3. काव्य की आत्मा के विषय में यद्यपि हमें द्वितीय भाग में विवेचन करना है; तथापि यहाँ कुछ मतों का उल्लेखमात्र किया जाता है। अग्निपुराण में लिखा है कि "काव्य की आत्मा रस है।" वामन कहते है कि "पदों की विशिष्ट रचना काव्य की आत्मा है।" आनंदवर्धन का सिद्धांत है कि "काव्य की आत्मा ध्वनि (व्यंग्य) है।" यही बात विद्यानाथ ने भी मानी है और 'व्यक्तिविवेककार' भी इसी से सहमत है। कुंतक (वक्रोक्तिजीवितकार) ने 'बड़ी चतुराई से बात के प्रतिपादन कर देने' को काव्य की आत्मा कहा है। साहित्यदर्पणकार 'असंलक्ष्यक्रम-व्यंग्यो को काव्य की आत्मा' मानते है। क्षेमेंद्र का कथन है कि 'काव्य का जीवन औचित्य है।' इनमें से कुछ कथन आलंकारिक भी है, वे वास्तव में 'काव्यात्मा' के अन्वेषण में नहीं लिखे गए हैं। पर इस पंचायत को हम इस समय नहीं छेड़ना चाहते।