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पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१३३

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मानना ही नहीं चाहते। सो यह उचित नहीं, क्योकि महाकवियों का जितना संप्रदाय है, उनकी जो प्राचीन परिपाटी चली आईं है, वह बिलकुल गड़बड़ा जायगी। उन्होंने स्थान-स्थान पर जल के प्रवाह, वेग, गिरने, उछलने और भ्रमण, एव बंदरों और बालकों की क्रीड़ाओं का वर्णन किया है। क्या वे सब काव्य नहीं हैं? आप कहेंगे कि उन वर्णनों में भी किसी न किसी तरह रस का स्पर्श है ही, क्योंकि ऐसे वर्णन भी उद्दीपन आदि कर सकने के कारण रस से संबंध रख सकते हैं। पर यदि यो मानने लगो तो "बैल चलता है।", "हरिण दौड़ता है" आदि वाक्य भी काव्य होने लगें; क्योंकि जगत् की जितनी वस्तुएँ हैं, वे सब विभाव, अनुभाव अथवा व्यभिचारी भाव कुछ न कुछ हो सकती है। इस कारण प्राचीनो एवं नवीनो के—दोनों के—"काव्य लक्षण" ठीक नहीं है।[]


  1. यहाँ हमें कुछ लिखना है। यद्यपि पंडितराज ने "काव्य लक्षण" के विषय में इतना सूक्ष्म विचार किया, तथापि वे इसके बनाने में सफल न हुए। इसका कारण हम पहले नागेशभट्ट की आलोचना, टिप्पणी में, देकर समझा चुके है। उसका सारांश यह है कि केवल शब्द को काव्य मानना ठीक नही, "शब्द और अर्थ" दोनों को काव्य मानना चाहिए। परंतु प्राचीन आचार्यों के लक्षण में भी "दोषरहित" कहना तो खंडित है, और यदि "गुण एवं अलंकार सहित शब्द और अर्थ" को काव्य माने, तथापि वह उत्कृष्ट काव्य का लक्षण हो सकता है, साधारण काव्य का नहीं, क्योकि सभी काव्यों में गुण और अलंकार नहीं रहते। इस कारण मेरे विचारानुसार "ऐसे शब्दों और अर्थों को काव्य मानना चाहिए, जिनके सुनने एवं समझने से अलौकिक आनंद की प्राप्ति हो"। तभी दृश्य काव्य कहना भी सार्थक हो सकता है। क्योकि देखने में अर्थ आ सकते है, शब्द नही। यही बात अर्थालंकार आदि के विषय में भी समझो। यद्यपि नाटक के पात्रादिको का बनानेवाला कवि नहीं है, तथापि उस सब सामग्री को उस रूप में उपस्थित करनेवाला उसे मानने में कोई संदेह नहीं। इस कारण उस अर्थ का निर्माता भी वह हो सकता है। "केवल शब्द" को ही काव्य मानने के कारण "साहित्यदर्पणकार" का भी लक्षण हमें सम्मत नहीं, वे "रसात्मक वाक्य" को काव्य कहते है, और वाक्य भी शब्द का ही नाम है।

    —अनुवादक