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पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१५९

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उनका विरह-ताप शांत हो गया और वाच्य-अर्थ है "हनुमान् पर बंदरों का अकस्मात् उत्पन्न होनेवाला क्रोध"। सो यह वाच्य-अर्थ व्यंग्य के द्वारा ही सिद्ध होता है, क्योंकि पहले जब व्यंग्य के द्वारा यह समझ लेते हैं-रामचंद्र का विरह शांत होने से सह्याचल के शिखर ठंडे हो गए, तव यह सिद्ध होता है कि इसी कारण, ठंड के मारे, बंदरों ने हनुमान पर क्रोध किया। अतः यह व्यग्य गौण हो गया, प्रधान नहीं रहा; क्योंकि वाच्य-अर्थ को सिद्ध करनेवाला व्यंग्य गौण हो जाता है, यह नियम है। पर इस दशा में भी, जिस तरह दुर्भाग्य के कारण कोई राजांगना किसी की दासी बनकर रहे, तथापि उसका अनुपम सौंदर्य झलकता ही है, ठीक उसी प्रकार इस व्यंग्य मे भी अनिर्वचनीय सुंदरता दृष्टिगोचर हो रही है।

यहाँ एक शंका होती है-इसी तरह "तल्पगताऽपि च सुतनुः... .." इस पूर्वोक्त ध्वनि-काव्य के उदाहरण मे "हाथ का धीरे धीरे हटाना" भी नई दुलहिन के स्वभाव के विरुद्ध है; क्योंकि नवोढा के स्वभाव के अनुसार तो उसे झट हटा लेना चाहिए था; इस कारण वह वाच्य भी व्यंग्य (प्रेम) से ही सिद्ध किया जा सकता है अर्थात धोरे धीरे उठाना तभी सिद्ध हो सकता है, जब हम यह समझ ले कि उसे पति से प्रेम होने लगा है, सो उसे उत्तमोत्तम काव्य कहना ठीक नही। इसका उत्तर यह है-प्रतिदिन के सखियों के