(५९)
कल्पना है; उसी प्रकार इन (विभावादि) को भी साक्षिभास्य मानने में कोई विरोध नहीं। अब रही यह शंका कि रस नित्य नहीं कहा जाता; क्योंकि वह भी उत्पन्न होनेवाली और नष्ट होनेवाली वस्तु के समान है, उसकी सदा तो स्फूर्त्ति होती नहीं; अतः व्यवहार से विरोध हो जायगा। सो इसका समाधान यह है कि—रस को ध्वनित करनेवाले विभावादिकों के (क्योंकि ये कल्पित है) अथवा उनके संयोग से उत्पन्न किए हुए अज्ञानरूप् आवरण के भंग की उत्पत्ति और विनाश के कारण रस की उत्पत्ति और विनाश मान लिए जाते हैं। जैसे कि वैयाकरण लोग अक्षरों को नित्य मानते हैं, तथापि वर्णों को व्यक्त करनेवाले तालु आदि स्थानों की क्रियाओं की उत्पत्ति और विनाश को अकार आदि अक्षरों की उत्पत्ति और विनाश मान लेते है। तब यह सिद्ध हुआ कि जब तक विभावादिकों की चर्वणा होती है—उनका अनुभव होता रहता है, तब तक आत्मानंद का आवरण भंग होता है और आवरण भंग होने पर ही रति आदि प्रकाशित होते हैं; अतः जब विभावादिकों की चर्वणा निवृत्त हो जाती है, तब प्रकाश ढँक जाता है, इस कारण स्थायी भाव यद्यपि विद्यमान रहता है, तथापि हमें उसका अनुभव नहीं होता।
(ख)
पहले पक्ष में यह बतलाया गया है कि विभावादिकों के संयोग से एक अलौकिक क्रिया उत्पन्न होती है और उसके द्वारा