पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ११० )


अतः वह स्तुति वाक्यार्थ रूप होती है, सो उसे प्रधान माने बिना गुजारा नही। दूसरा दयावीर; जैसे-

न कपोत! भवंतमण्वपि स्पृशतु श्येनसमुद्भवं भयम्।
इदमद्य मया तृणीकृतं भवदायुःकुशलं कलेवरम्॥

****

जनि कपोत, तुहि तनिक हूँ छुवै वाज-भय, आज।
यह तन तिनका मैं कियो तेरे जीवन-काज॥

हे कबूतर, (मैं चाहता हूँ कि) बाज का भय तेरा किचिन्मात्र भी स्पर्श न करे। आज, मैंने, तेरे जीवन को कुशलता प्रदान करनेवाले इस शरीर को तिनका बना दिया है-मैं इस शरीर को तिनके की तरह समझकर नष्ट कर रहा हूँ और चाहता हूँ कि बाज के द्वारा तुझे किसी प्रकार का भय न हो। अथवा इस पद्य की रचना यों समझिए-

न कपोतकपोतकं तव स्पृशतु श्येन मनागपि स्पृहा।
इदमद्य मया समर्पितं भवते चारुतरं कलेवरम्॥

****

जनि कपात-पातहि छुवै तनिक हु तुव मन बाज!
यह तुव हित अरपन कियो सुघर कलेवर आज॥

हे बाज। (मैं चाहता हूँ कि) तेरी इच्छा (इस) कबूतर के बच्चे का किचिन्मात्र भी स्पर्श न करे। मैंने,आज, तेरे लिये इस परम रमणीय शरीर का समपर्ण कर दिया है-