पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२४२

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के लिये देखिए कि जब भगवद्भक्त लोग भागवत आदि पुराणों का श्रवण करते हैं, उस समय वे जिस 'भक्ति-रस' का अनुभव करते हैं, उसे आप किसी तरह नही छिपा सकते। उस रस के भगवान बालंबन हैं, भागवतश्रवण आदि उद्दीपन हैं, रोमांच, अश्रुपात आदि अनुभाव हैं और हर्ष-आदि संचारी भाव हैं। तथा इसका स्थायी भाव है भगवान से प्रेम-रूप 'भक्ति'। इसका शान्त-रस मे भी अंतर्भाव नहीं हो सकता; क्योंकि अनुराग (प्रेम) वैराग्य से विरुद्ध है और शान्त-रस का स्थायी भाव है वैराग्य। अच्छा, इसका उत्तर भी सुनिए। भक्ति भी देवता आदि के विषय में जो रति (प्रेम) होती है, उसी का नाम है, और देवता आदि के विषय मे जो रति होती है, उसकी भावों मे गणना की गई है, सो वह रस नहीं, कितु भाव है; क्योंकि-

रतिर्देवादिविषया व्यभिचारी तथाञ्जितः।
भावः प्रोक्तस्तदाभासा हयनौचित्यप्रवर्तिताः॥

अर्थात् देवता-आदि के विषय में होनेवालाप्रेम और व्यंजनावृत्ति से ध्वनित हुआ व्यभिचारी भाव 'भाव' कहलाता है, और यदि रस तथा भाव अनुचित रीति से प्रवृत्त हों, तो 'रसाभास' और 'भावाभास' कहलाते हैं यह प्राचीन आचार्यों का सिद्धांत है। आप कहेंगे-यदि ऐसा ही है तो कामिनी के विषय मे जा प्रेम होता है, उसे भी 'भाव' कहिए; क्योंकि जैसा यह प्रेम वैसा ही वह भी प्रेम-इसमे उसमे भेद ही