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पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२५१

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उत्क्षिप्ताः कबरीभरं विवलिताः पार्श्वद्वयं, न्यकृताः
पादाम्भोजयुगं, रुषा परिहृता दूरेण चेलाञ्चलम्।
गृह्णन्ति त्वरया भवत्सतिभटक्ष्मापालवामभ्रु वां
यान्तीनां गहनेषु कण्टकचिताः के के न भूमीरुहाः?

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ऊँचे कबरिन, किए बक दोऊ बगलनि कों।
बल सों नीचे किए भूमि सु-चरन-कमलनि कों॥
किए रोस सो दूर तुरत पट-चिल पकरत।
सब जतननि को हाय! सहज ही मे है बिदरत॥
इहि भाति विपिन में विचरती तुव रिपु-नृप-नारिन विकल।
हे भूमिनाथ! कहु कौन नहि करत कँटीले तरुन दल॥

हे राजन्! कौन ऐसे कँटीले पेड़ हैं, जो, जंगल में जावी हुई, आपके शत्रु राजाओं की स्त्रियों के, ऊँचे करने पर केशपाश को, टेढ़े करने पर दोनों कमलों को, नीचे करने पर दोनों चरण-कमलों को और रोष से दूर हटा देने पर झट से कपड़े का प्रांत न पकड़ लेते हों।

इस पद्य में समासोक्ति अलंकार है और उसके अंग हैं दो प्रकार के व्यवहार-एक प्रस्तुत और दूसरा अप्रस्तुत। उनमें से यहाँ प्रस्तुत व्यवहार है-पेड़ों के द्वारा स्त्रियों की चोटी-आदि का पकड़ना, और अप्रस्तुत है-किसी कामी पुरुष के द्वारा उनका पकड़ना। इन दोनो व्यवहारों में से