पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२५९

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समान ही होते हैं, तथापि संभोग-रूप रति का, जिस तरह मनुष्यों में वर्णन किया जाता है, उसी तरह सब अनुभावों (आलिंगन-चुंबन आदि) को स्पष्ट करके उत्तम देवताओं के विषय मे वर्णन करना अनुचित है, और संसार को भस्म कर देने में समर्थ एवं रात्रि और दिन को बदल देने आदि अनेक आश्चयों के उत्पन्न कर देनेवाले क्रोध का जिस तरह दिव्य नायकों मे वर्णन किया जाता है, उसी तरह अदिव्य नायकों मे वर्णन करना अनुचित है। क्योंकि दिव्य आलंबनों मे हम लोगों को पूज्यता की बुद्धि रहने के कारण और अदिव्य पालंबनों मे पूर्वोक्त अनुभावों के झूठेपन की प्रवीति होने के कारण रस विकसित नहीं हो सकेगा। आप कहेंगे कि रस-प्रतीति के पहले नायक-नायिका आदि के साधारण हो जाने के कारण, उनमे हमारी पूज्यता बुद्धि उत्पन्न ही नहीं होगी, पर यह ठीक नही, क्योंकि जिस स्थान पर सहृदय पुरुषों को रस की जागृति प्रमाण-सिद्ध है, उन्हीं नायकनायिका आदि मे साधारण कर लेने की कल्पना की जाती है। अन्यथा अपनी माता के विषय मे अपने पिता का प्रेम वर्णन करने पर भी रस की प्रतीति होने लगेगी। पर, जयदेव आदि कवियों ने गीतगोविद आदि ग्रंथों में, सब सहृदयों के माने हुए इस संकेत को, मदोन्मत्त हाथियों की तरह, तोड़ डाला है, सो उनका दृष्टांत देकर आधुनिक कवियों को इस तरह के वर्णन न करने चाहिए।