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पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२६०

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इसी तरह जो लोग विद्या, अवस्था, वर्ण, आश्रम और तप आदि के कारण उत्कृष्ट हों, उन्हें अपने से छोटे लोगों के साथ अत्यंत सम्मानयुक्त वचनों से व्यवहार नहीं करना चाहिए, और छोटों को बड़ों के साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिए। उनमे भी 'वत्र भवन्', भगवन्' इत्यादि संबोधनों से मुनि, गुरु और देवता आदि का ही संबोधन किया जाना चाहिए, राजादिको का नहीं। सो भी जो लोग जाति से उत्तम-अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य-हों, वे ही ऐसे संबोधनों का प्रयोग करे, शूद्रादिक नहीं। इसी तरह 'परमेश्वर' आदि संबोधनों से चक्रवर्तियों का ही संबोधन किया जाना चाहिए, मुनि आदि का नहीं। यही सब सोचकर आनन्दवर्द्धन ने लिखा है कि-

अनौचित्याहते नाऽन्यद्रसभङ्गस्य कारणम्।
प्रसिद्धौचित्यबन्धस्तु रसस्योपनिषत् परा॥

अर्थात् रस के भंग का, अनुचितता के अतिरिक्त, अन्य कोई भी कारण नहीं है, और प्रसिद्ध उचितता का वर्णन करना ही रस की सबसे बड़ी उपनिषत् है। तात्पर्य यह कि जिस तरह उपनिषत् से ही ब्रह्म का प्रतिपादन होता है, उस तरह प्रसिद्ध उचितवा के वर्णन से ही इसका प्रतिपादन होता है, अन्यथा नहीं। बस, इतने में सब समझ लीजिए।

र॰-१०