पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१५४)
  • [१]अनवरतविद्वद् द्रुमद्रोहिदारिद्रयमाद्यद्विपा-वामदघिविद्रावणप्रौढपञ्चाननः (अथवा, जैसे हिंदी की अमृतध्वनियाँ)

प्रसाद

रचना में गाढता और शिथिलता का विपरीत मिश्रण-अर्थात् पहले शिथिल और फिर गाढ (चुस्त) रचना का होना-'प्रसाद-गुण' कहलाता है। जैसे कि-

[२]किं ब्रूमस्तव वीरतां वयममी, यस्मिन्, धराखण्डल!
क्रीडाकुण्डलित, शोणनयने दार्मण्डलं पश्यति।

  1. * किसी राजा का वर्णन है। कवि कहता है कि-(वह राजा) 'विद्वानरूपी वृक्षो से सर्वदा द्रोह करनेवाले दारिद्रयरूपी मस्त हाथी के मर्यादा रहित गर्ष-समूह के नष्ट करने के लिये बड़ा भारी' सिंह है' अर्थात् जिसके समीप जाते ही विद्वानों का बैरी दारिद्रय खड़ा ही नहीं रह सकता।
  2. † वर्णन पूर्ववत् ही है। हे राजन्! आपकी वीरता को ये (बेचारे) हम क्या कहे। जिनके खेल मे भौंहो को गोल और नेत्रों को लाल करके भुज-मंडल को देखने पर, तत्काल ही, माणिक्यावलि की कांतियों से अत्यंत नतोबत सहस्रो प्राभूषणों के समूहों से विंध्याचल के वनों के गुफारूपी घरो मे जो वृक्ष है, वे चमकने लग गए अर्थात् खेल में की हुई आपकी पूर्वोक्त चेष्टा को सुनकर बेचारे शत्रु लोग ठहर ही न सके,
    उन्हे भगकर विध्य-वन के शरण में पहुंच जाना पड़ा।