पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १६३ )

एक अनन्य भक्त कह रहा है-(मेरे) हरि ही पिता हैं, हरि ही माता हैं, हरि ही भाई हैं और हरि ही मित्र हैं। मैं सब जगह हरि को ही देखता हूँ, सिवाय हरि के मुझे अन्य किसी का भान नहीं है।

यहाँ यदि (संस्कृत मे) "विष्णुर्भ्राता' और (हिंदी मे) 'प्रभु भ्राता' बना दिया जाय, तो जो (हरि शब्द के द्वारा सबंध दिखाना) प्रारभ किया गया है, वह टूट जायगा और विषमता आ जायगी।

माधुर्य

एक ही बात को भिन्न भिन्न प्रकार से बार बार कहना-यह जो उक्ति की विचित्रता है, इसे 'माधुर्य-गुण' कहते हैं। जैसे-

विधत्तां निश्शङ्कं निरवधिसमाधिं विधिरहो!
सुखं शेषे शेतां हरिरविरतं नृत्यतु हरः।
कृतं प्रायश्चित्तैरलमथ तपादानयजनैः
सवित्री कामानां यदि जगति जागर्त्ति भवती॥
xxxx

रहै सदैव समाधि-मन्न विधि चिन्ता तजि के।
हरि हू सोवै सुखित, शेष-सेजहिं सुठि सजि के॥
शिव हू सँग लै भूत-प्रेत नित निरतत रहहू।
अथवा नाना कथा शैलतनया ने कहहू॥