पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२८८

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ध्वनित करनेवाली रचना मे कर लीजिए; पर प्रसाद और समाधि तो गाढ़ और शिथिल दोनों प्रकार की रचनाओं के मिश्रयरूप होते हैं, अतः एक (गाढ़) अंश को ओज का व्यंजक मान लेने पर भी दूसरे (शिथिल) अंश का अंतर्भाव किसमें होगा? तो हम अनायास कह सकते हैं कि-माधुर्य अथवा प्रसाद की अभिव्यंजक रचना मे। अच्छा, चार की गति तो हुई; अब आपके माधुर्य को लीजिए, वह तो हमारे माधुर्य की अभिव्यंजक रचना हुई है। इससे यह सिद्ध होता है कि प्राचीनों के मत मे व्यंजको (रचना-आदि) मे व्यंग्यों (माधुर्य आदि) का प्रयोग लाक्षणिक है। अतएव ओज गुण का भी ओजोव्यंजक रचना मे अंतर्भाव समझ लेना चाहिए।

अब 'समता' की चर्चा करिए। सो उसका सर्वत्र होना तो अनुचित ही है, क्योंकि सभी विद्वान्, जिस विषय का प्रतिपादन किया जा रहा है, उसकी उद्भटता और अनुटता के अनुसार, एक ही पद्य में, भिन्न भिन्न रीतियों के प्रयोग को स्वीकार करते हैं; जैसे-

निर्माणे यदि मार्मिकोऽसि नितरामत्यन्तपाकद्रव-
न्मृद्वीकामधुमाधुरीमदपरीहारोद्धराणां गिराम्।
काव्यं तर्हि सखे! सुखेन कथय त्वं सम्मुखे मादृशां
नो चेद्दष्कृतमात्मना कृतमिव स्वान्ताबहिर्मा कृथाः॥

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