हो भी नही सकती। रहा श्रम, सो उसके लिये तो इनका (विभावादिकों का) अनुकूल होना उचित है।
१२-गर्व
रूप, धन और विद्या आदि के कारण अपने उत्कर्ष का ज्ञान होने से जो दूसरे की अवज्ञा करना है, उसे 'गर्व' कहते हैं। उदाहरण लीजिए-
आमूलाद्रत्रनसानार्मलयवलयितादा च कूलात्पयोधे-
यावन्तः सन्ति काव्यप्रणयनपटवस्ते विशङ्कं वदन्तु।
मृद्वीकामध्यनिर्यन्मसूणरसझरीमाधुरीभाग्यमाजां
वाचामाचार्यतायाः पदमनुभवितु कोऽस्ति धन्यो मदन्यः॥
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मेरुमूल ते मलय-वलय-मय जलधि तीर तक।
जेते कविता-कर्म-निपुण, ते कहै छोडि सक॥-
निकरत द्राक्षामध्य भाग जो चिकनी रस-भर।
तिनको प्रति-माधुर्य भाग्य मे जिनके निरभर॥
तिन बानिन को सकल-जग-वंदित जो आचार्य-पद।
तेहि कहु मोते अन्य को धन्य भागिहै लहि प्रमद॥
एक कविजी (पण्डितराज) कहते हैं कि-सुमेरु पर्वत की तरहटी से लेकर मलयाचल से घिरे हुए समुद्र के तट तक, जितने कविता करने मे चतुर पुरुष हैं, वे साफ़ साफ़ कहें कि दाखों के अन्दर से निकलनेवाली चिकनीरसधारा की मधुरता का भाग्य