पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३६८

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करु हरुए रे! नेक निर्दयी हय-गन की गति। हौ ना चाहत समर देखिबो, कंपत मो मति॥ क्रुद्ध सर्प-सम उग्र भुजनवारे छत्रिन के। सुनि सुनि नाद विदीर्ण होत मम छिद्र श्रुतिन के॥

भीरु पुरुष विराट-पुत्र उत्तर अपने सारथि बृहन्नलावेषधारी अर्जुन से कह रहा है-ए भैया! तू इन निर्दयी घोड़ों की गति को मंदी कर दे, मैं युद्ध देखना नहीं चाहता। देख तो, क्रोधी सर्प के समान जिनकी भुजाएँ हैं, उन क्षत्रियों के नाद मेरे कानों के छिद्रों को विदीर्ण किए देते हैं उन्हें सुन सुनकर मेरे कानों के परदे फटे जा रहे हैं।

यहाँ त्रास ही प्रतीत हो रहा है, इस कारण विषाद की प्रतीति नहीं हो सकती। पर यदि किसी अंश मे प्रतीति मान भी ले, तथापि उसका भी त्रास में ही अनुकूल होना उचित है; सो वह इस योग्य नहीं कि इस काव्य को उसकी ध्वनि कहा जाय।

२६-औत्सुक्य

"यह वस्तु मुझे इसी समय प्राप्त हो जाय" इस इच्छा को 'औत्सुक्य' कहते हैं। वांछित का न प्राप्त होना इसका विभाव होता है और शीघ्रता, चिंता आदि अनुभाव होते हैं। जैसा कि कहा गया है-

संजातमिष्टविरहादुद्दीप्तं प्रियसस्मृतेः।
निद्रया तन्द्रया गात्रगौरवेण च चिन्तया॥
अनुभावितमाख्यातमौत्सुक्यं भावकोविदः॥