पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३७०

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लीला ते बाँध्यो जलधि सो यह रघुपति आत। दरप भर्यो दसवदन, कहँ जाउँ, निकट कुलघात॥

जिन्होंने लीला से समुद्र का सेतु तैयार कर दिया, वे रघुवंशनंदन-रामचंद्र-ये आ रहे हैं; और रावण है पूरा घमंडी-वह कभी झुकनेवाला नहीं। अब, मैं कहाँ जाऊँ, कुल का नाश बिलकुल नजदीक आ गया है कोई बचाव की सूरत नही दिखाई देती। यह मंदोदरी का मन-ही-मन कथन है।

यहाँ रघुनंदन का आना विभाव है और 'कहाँ जाऊँ' इस कथन से अभिव्यक्त होनेवाला स्थिरता का अभाव अनुभाव है। यहाँ यह नहीं कहा जा सकता कि इस पद्य मे चिंता प्रधानतया अभिव्यक्त होती है, क्योंकि 'कहाँ जाऊँ' इस कथन से सष्ट प्रतीत होनेवाले स्थिरता के प्रभाव से जिस तरह उद्वेग की प्रतीति होती है, उस तरह चिता की नही होती। परंतु आवेग के प्रास्वादन मे, उसके परिपोषक रूप से, गौणतया, चिता भी अनुभाव में आ जाती है।

२८-जड़ता

चिंता, उत्कंठा, भय, बिरह और मिय के अनिष्ट के देखने सुनने आदि से उत्पन्न होनेवाली और अवश्य करने योग्य कार्यों के अनुसंधान से रहित जो चित्तवृत्ति होती है, उसे 'जड़ता' कहते हैं। यह मोह के पहले और पीछे उत्पन्न हुआ करती है। जैसा कि कहा गया है-