पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३७९

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अहित नियम तुव, पापमय, मोहिँ मुख न यों दिखाय।
हौं आपुहिं मारन चहत जेहिँ ताहिँ दिय उपजाय॥

हे अनिष्टकारी नियमों के पालन करनेवाले दुरात्मन्! तू इस तरह मुझे मुख मत दिखा। मैं अपने को मार देना चाहता हूँ, जिससे कि तू उत्पन्न किया गया है। यह हिरण्यकशिपु का, प्रह्लाद के प्रति, उस समय का, कथन है, जब कि उसे उसकी भगवद्भक्ति के हटने का कोई उपाय न सूझ पड़ा।

यहाँ भगवान के द्वेष के द्वारा उद्दीप्त किया हुआ पुत्र का द्वेष विभाव है और आत्महत्या की इच्छा अनुभाव।

यहाँ यह न कहना चाहिए कि इस पद्य में 'अमर्ष ही व्यंग्य है; क्योंकि सदा से ही भगवान से प्रेम करनेवाले प्रह्लाद के साथ हिरण्यकशिपु का जो अमर्ष था, वह बहुत समय से संचित था; अत: यदि अमर्ष के कारण ही उसकी आत्महत्या की इच्छा हुई यह माना जाय, तो इस इच्छा का इस समय ही पहले बार होना नहीं बन सकता; यदि यह इच्छा उसी कारण से हुई होती तो इतने वर्षों तक ही क्यों न हो गई होती। अब, जब कि वह इच्छा पहले-पहल उत्पन्न हुई है, वो उसका कारण भी पहले-पहल उत्पन्न हुआ है यह मानना चाहिए। तब पुरानी चित्तवृत्ति जो अमर्ष है, उससे भिन्न चपलता नामक चित्तवृत्ति ही उसका कारण सिद्ध होती है। पर, यदि कहो कि आत्महत्या आदि का कारण अमर्षे की अधिकता ही है, अतः यहाँ उसी की अभिव्यक्ति माननी