पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/४६

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महोपाख्यान और अष्टादश महापुराणों के प्रणेता महामुनि कृष्ण द्वैपायन (वेदव्यास) "कवि" पदवी के अधिकारी हुए। इसी तरह पुराणों के समय तक अन्यान्य विद्वान् वर्णयिताओं को, चाहे उनकी रचनाओं मे सौंदर्य अधिक मात्रा में होता या न होता, कवि कहा जाता था; जैसे राजनीति आदि के लेखक शुक्राचार्य आदि को। कवि शब्द का वह व्यापक अर्थ, जिसके द्वारा प्रत्येक वर्णयिता को कवि कहा जा सकता था, पुराणों के समय तक प्रचलित था। यह बात अग्निपुराण के काव्यलक्षण से स्पष्ट हो जाती है, जिसका वर्णन अभी किया जायगा।

परन्तु पीछे से यह शब्द उन विद्वानों के लिये व्यवहृत होने लगा, जो सौंदर्यपूर्ण विषय का सौंदर्यपूर्ण वर्णन करते थे और जिनके वर्णन को सुनकर मनुष्य मुग्ध हो जाते थे। अतएव व्यास और वाल्मीकि को कवि मान लेने पर भी, किसी ने, मनु, याज्ञवल्क्य अथवा पराशर जैसे विद्वानों को, यद्यपि उन्होने भी छंदोबद्ध ग्रंथ लिखे हैं, कवि नहीं कहा। काव्यलक्षण में अनेक परिवर्तन होते होते भी, शास्त्रीय दृष्टि से, यह शब्द आज दिन भी प्रायः इसी अर्थ मे व्यवहृत होता है।

अच्छा, यह तो हुई कवि की बात। अब यह समझिए कि उसका कार्य क्या है। उसका कार्य, कवि शब्द के साधारण अथवा प्रारंभिक अर्थ के अनुसार 'किसी विषय का प्रतिपादन' और विशेष अथवा आधुनिक अर्थ के अनुसार 'किसी सौंदर्यपूर्ण विषय का सौंदर्यपूर्ण वर्णन' है। प्रति-