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पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/५०

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अर्थात् काव्यरूपी जो अनंत जगत् है, उसमें कवि ही प्रजापति[] है—उस जगत् का सृष्टिकर्ता वहाँ है, उसे जिस तरह का संसार पसंद होता है, इस जगत् को उसी प्रकार बदल जाना पड़ता है।

अब तक जो केवल शब्द (पदावली) को काव्य कहा जाता था, वह उन्हें न ‌जँचा और उन्होंने उसके साथ अर्थ को भी जोड़ दिया। उन्होंने कहा—"ननु[] शब्दार्थो काव्यम्।" तात्पर्य यह कि रुद्रट के, अथवा रुद्रट और दंडी के मध्य के, समय में पदावली और उससे वर्णन किए जानेवाले अर्थ दोनों को काव्य कहा जाने लगा।

वामन (नवम शताब्दी के पूर्वाध से पहले)

इनके अनंतर सुप्रसिद्व आलंकारिक वामन का समय आता है। यद्यपि सौंदर्ययुक्त वर्णन को काव्य मानना अग्निपुराण के समय से ही प्रचलित हो गया है; यह बात उसके लक्षण से पूर्णतया सिद्ध न होने पर भी विवेचन से सिद्ध है; तथापि वामन के समय से काव्य में सौंदर्य का प्राधान्य समझा जाने लगा। यह बात उनके अलंकार-सूत्रों से स्पष्ट हो जाती है। वे कहते हैं—"काव्यं ग्राह्यमलंकारात्" और "सौदर्यमलंकारः"; जिसका तात्पर्य यह है कि काव्य को ग्रहण करना उचित है; क्योंकि उसमें सुंदरता होती है।


  1. 'स्रष्टा प्रजापतिवैधा.' इत्यमरः।
  2. "पृष्टप्रतिवाक्ये ननुः" इति तट्टीकाकर्तुर्नमिसाधोहृदयम्।