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पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/५१

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यहाँ यह भी समझ लेना चाहिए कि वामन के समय में काव्य की सुंदरता का कारण गुणों और अलंकारों को माना जाता था। उन्होंने लिखा हो है—"स दोषगुणालंकारहानादानाभ्याम्"; अर्थात् वह सौंदर्य दोषों के छोड़ देने और गुणों तथा अलंकारों के ग्रहण करने से होता है। अतएव वे पूर्वोक्त सूत्रों की स्वनिर्मित वृत्ति में 'काव्यलक्षण' के विषय मे कहते हैं—"काव्यशब्दोऽयं गुणालंकारसंस्कृतयोः शब्दार्थयोर्वर्त्तते"; अर्थात् जिन शब्दों और अर्थों में काव्य की पुट लगी हो, वे काव्य कहलाते हैं।

पर, उनके ग्रंथ से यह भी स्पष्ट प्रतीत होता है कि शब्द और अर्थ के साथ 'गुणों और अलंकारों से युक्त' विशेषण उनकी अभिनव ही सृष्टि है; क्योंकि वे उसी के साथ लिखते हैं कि "भक्त्या तु शब्दार्थमात्रवचनो गृह्यते।" इसका तात्पर्य यह होता है कि, अब तक जो 'केवल शब्द और अर्थ' को काव्य कहा गया है, वह काव्य स्वरूप का वास्तविक विवेचन न होने के कारण कहा गया है, और अब वह रूढ़ हो गया है; पर उसे काव्य शब्द का मुख्य अर्थ नहीं, किंतु लाक्षणिक अर्थ समझना चाहिए। सो वामन के सिद्धांत के अनुसार काव्य शब्द का अर्थ 'गुणो और अलंकारों से युक्त शब्द और अर्थ' हुआ।

आनंदवर्धनाचार्य (नवम शताब्दी का उत्तरार्ध)

इनके अनंतर भावी व्यंग्यविवेचना के प्रथम प्रवर्त्तक ध्वनिमर्मज्ञ श्री आनंदवर्धनाचार्य ने काव्यलक्षण को स्पष्ट रूप में तो