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रस और वृत्ति—इन सबसे सहित वाणी को काव्य कहने लगे। अर्थात् अब तक जो कुछ उत्कर्षांधायक, जीवनदायक अथवा शोभाविधायक धर्म उन्हें दिखाई पड़े, उन्होंने उन सबको वाक्य के साथ में लगाकर एक लंबा लक्षण बना डाला। पर, यह बात एक प्रकार से मानी हुई ही है कि उनका लक्षण-निर्माण सरल और हृदयङ्गम होने पर भी उतना विवेचनापूर्ण नहीं है। वही बात यहाँ भी हुई है।
विश्वनाथ (चौदहवीं शताब्दी)
विक्रम की चौदहवी शताब्दी से काव्यलक्षण का रुख फिर से बदला और उसकी लंबाई को कम करने का यत्न होने लगा। जहाँ तक हम समझते हैं, सबसे पहले, सुप्रसिद्ध निबंध 'साहित्यदर्पण' के रचयिता महापात्र विश्वनाथ ने उसे कम किया और कहा कि "जिसकी जीवनज्योति रस-भाव आदि हैं, जो इन्हीं के द्वारा चमत्कारी होता है, उस वाक्य का नाम 'काव्य' है"। उनका अभिप्राय यह है कि वाक्य में चाहे अलंकार आदि कोई उत्कर्षाधायक वस्तु न हो और दोष भी हों, तथापि यदि उससे रस, भाव और उनके आभासों की अभिव्यक्ति होती हो, तो उसे काव्य कहा जा सकता है।
यह बात कुछ नवीन नहीं, बहुत पुरानी है। शौद्धोदनि नामक एक आचार्य ने इस बात को बहुत पहले ही लिख दिया था, महापात्रजी ने प्रायः उसी को उठाकर लिख दिया है। यह बात केशव मिश्र के 'अलंकारशेखर' से स्पष्ट हो