पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/५५

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जाती है। वे कहते हैं—'अलंकारसूत्र-कार भगवान् शौद्धोदनि ने काव्य का स्वरूप यों लिखा है—"काव्यं रसादिमद्वाक्यं श्रुत सुखविशेषकृत्।" अर्थात् जिस वाक्य में रस आदि हों, उसे 'काव्य' कहा जाता है। 'रस आदि' में जो 'आदि' शब्द है, उससे उन्होंने (केशव मिश्र) अलंकार का ग्रहण किया है और कहते हैं कि रस अथवा अलंकार दोनों में से एक के होने पर वाक्य को काव्य कहा जा सकता है। पर साहित्यदर्पणकार को अलंकारमात्र के होने पर काव्य मानना अभीष्ट नहीं; अतः उन्होंने आदि शब्द को उड़ा दिया और केवल 'रस' शब्द लिखकर उससे रस भाव-आदि आस्वादनीय व्यंग्यों का ग्रहण कर लिया है।

गोविंद ठक्कुर[१] (सोलहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध, अनुमित)

तदनंतर 'काव्यप्रकाश' के मर्मज्ञ 'काव्यप्रदीप'-कार श्रीगोविंद ठक्कुर का समय आता है। उन्होंने 'काव्यप्रकाश' के लक्षण का विवेचन करते हुए यह लिखा है कि—काव्यप्रकाशकार को रस-रहित होने पर और अलंकार के स्पष्ट न होने पर भी शब्द और अर्थ को काव्य मानना अभीष्ट है। पर यह उचित नहीं। क्योकि जहाँ रस न होगा और अलं


  1. ये यद्यपि व्याख्याकार है, तथापि हम इन्हें आचार्यों में मानते है और हमें विश्वास है कि 'प्रदीप' के मर्मज्ञों को इसमें विप्रतिपत्ति नहीं हो सकती।