पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/७४

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को, यदि कोई, दूसरे दिन, उन वेष-भूषाओं और चेष्टाओं से रहित देखे, तो क्या तब भी वह उसी आनंद को प्राप्त कर सकेगा? कभी नहीं। बस, तो यही समझकर लोगों के विचारों में परिवर्त्तन हुआ और उन्होंने सोचा कि प्रेम आदि का आलंबन रस नहीं, किंतु बार-बार अनुसंधान की हुई उसकी चेष्टाएँ और शारीरिक स्थितियाँ, जिन्हें अनुभाव कहा जाता है, रस हैं। वे कहने लगे कि "अनुभावस्तथा"। अर्थात् बार-बार अनुसंधान की हुई विभाव की चेष्टाएँ और शारीरिक स्थितियाँ रस हैं। यह मत प्रस्तुत पुस्तक में दसवाँ है।

३—इसके बाद लोग कुछ और आगे बढ़े। उनका ध्यान प्रेम-पात्र की चित्तवृत्तियों की तरफ गया। उन्होंने सोचा कि कोई भी नट या नटी हजार लटका करे; पर यदि वह उस पात्र के अंतःकरण के भावों को दर्शकों के सामने यथार्थ रूप में प्रकट न कर सके, तो कुछ भी मजा नहीं आता। अतः यह मानना चाहिए कि न विभाव रस हैं, न अनुभाव, किंतु प्रेम आदि के आलंबन अथवा आश्रय की जो चित्तवृत्तियाँ हैं, जिन्हें व्यभिचारी भाव कहा जाता है, वे बार बार अनुसंधान करने पर रसरूप बनती हैं। वे कहने लगे कि "व्यभिचार्येव तथा-तथा परिणमति"। अर्थात् प्रेम आदि के आलंबन तथा आश्रय की चित्तवृत्तियाँ ही उस उस रस के रूप में परिणत होती हैं। यह मत प्रस्तुत पुस्तक में ग्यारहवाँ है।