पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/९७

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संख्य, उदारता, पाक और राग इस तरह छः उभयगुण—अर्थात् शब्द और अर्थ दोनों के गुण; यों सब मिलाकर उन्नीस गुण गिनाए हैं। पर इनमें से कुछ भरतादि के गुणों में समाविष्ट, कुछ अप्रचलित और शुद्ध पुस्तक की अप्राप्ति के कारण अस्पष्ट से हैं; अतः उन्हें प्रपंचित करके हम इस भूमिका का आकार बढाना नहीं चाहते।

दंडी ने नाम और संख्या तो भरत की ही रखी है; पर उनके क्रम और लक्षणों में बहुत कुछ फेर-फार कर दिया है। पर उनमें से भी कुछ अप्रचलित और अधिकांश वामन के गुणों में समाविष्ट हो जाते हैं; अतः उनका विस्तार भी निरर्थक है।

वामन ने इन गुणों का बहुत ही विशद विवेचन किया है और 'काव्यप्रकाशकार' आदि ने उसे ही प्राचीनों का मत माना है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि भरत और दंडी के लक्षित गुणों का उनमें सर्वांश में संग्रह हो जाता है, पर इसमें संदेह नहीं कि अधिकांश में वे उनमें समाविष्ट हो जाते हैं। रसगंगाधर में जो अत्यंत प्राचीनों के दस शब्दगुण और दस अर्थगुण लिखे हैं, वे वामन के मत से ही संगृहीत किए गए हैं। सो उनके लक्षणों और उदाहरणों को आप देख ही लेंगे।

अब रहे भोजराज।[१] उन्होंने वामन के दस शब्दगुणों के अतिरिक्त उदात्तता, अर्जितता, प्रेयान्, सुशब्दता,


  1. श्लेषः प्रसादः समता माधुर्य सुकुमारता।
    अर्थव्यक्तिस्तथा कान्तिरुदारवमुदात्तता॥
    ओजस्तथाऽन्यदौर्जित्यं प्रेयानथ सुशब्दता।
    तद्वत् समाधिः सौक्षम्यं च गाम्भीर्यमथ विस्तरः॥
    संक्षेपः संमितत्वं च भाविकत्वं गतिस्तथा।
    रीतिरुक्तिस्तथा प्रोढिः.. ..... .........॥

    —सरस्वतीकंठाभरण।