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हिन्दी-राष्ट्र
 

समझते तो हानि-लाभ की एकता का सूक्ष्म प्रश्न तो और भी जटिल है। इस संबंध में इस समय इतना ही कहना बहुत होगा कि हिन्दी-भाषा-भाषियों का हानि-लाभ—चाहे वह आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक अथवा साहित्यिक किसी प्रकार का भी हो—भारत के अन्य भाषा-भाषियों से पृथक् है और रहेगा। हिन्दी साहित्य की उन्नति के लिए हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन काम आवेगा, बंगीय-साहित्य-परिषद् से काम नहीं चलेगा। अपने यहाँ की स्त्रियों को शिक्षित करने के लिए महाराष्ट्र के महिला विद्यालय को धन देने से कोई विशेष लाभ नहीं। हम लोगों के धन के दुरुपयेाग को मद्रास की कौंसिल नहीं रोक सकेगी, इसके लिए अपनी कौंसिलों में ही शक्तिशाली होकर लड़ना पड़ेगा। यहाँ के मन्दिरों के सुधार के लिए हमी लोगों को अग्रसर होना पड़ेगा, पंजाब के अकाली वीरों से सहायता मिलने के ध्यान में हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहने से लज्जा मालूम होनी चाहिए। यह सच है कि आज कल एक अंग्रेज़ी शासन में होने के कारण भारत के सब भिन्न भिन्न राष्ट्रों की चोटियें एक में बँधी हुई हैं। इस रस्सी के खिंचने या ढीले होने से जो सुख या दुःख होता है उसका अनुभव आजकल भारत के समस्त राष्ट्रों को साथ ही होता है। किन्तु जिस दिन यह रस्सी कटी, उस दिन फिर इसी रूस में बँधे खड़े रहने में शोभा नहीं होगी। हम सब लोग स्वतन्त्रता पूर्वक एक साथ रहते रहें यह दूसरी बात है। कदाचित् यह आवश्यक भी हो।