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हिन्दी राष्ट्र को दृढ़ तथा स्थायी बनाने के उपाय
 


भारत के भिन्न भिन्न राष्ट्रों में पढ़े लिखे लोगों के बीच हिन्दी जानने वालों की संख्या बढ़ जावे जिससे भविष्य में भारत की अन्तर्राष्ट्रीय भाषा का स्थान अँगरेजी के स्थान पर अपनी भाषाओं में से कोई एक ले सके यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण अखिल भारतीय प्रश्न है अतः इसमें कुछ लोगों का लगना ठीक ही है। किन्तु हिन्दी-भाषा-भाषियों के सन्मुख इससे भी अधिक आवश्यक प्रश्न अपने लोगों में उर्दू के स्थान पर हिन्दी के प्रचार करने का है। यह राष्ट्रीय प्रश्न हैं और हिन्दीराष्ट्र का भविष्य बहुत कुछ इस पर निर्भर है। बिना राज्य की सहायता के हिन्दी और उर्दू के एक हो जाने में मेरा अपना विश्वास नहीं है। राजनीतिक तथा धार्मिक नेताओं के अतिरिक्त दोनों भाषाओं के साहित्यज्ञ इस एकीकरण के लिये कभी उद्यत नहीं हो सकते। यदि हिन्दी वाले समझौता करने के लिये किसी तरह उद्यत हो भी गये तो उर्दू-दाँ नहीं होंगे क्योंकि उनमें अच्छी संख्या मुसलमानों की है जिनकी सभ्यता अब उर्दू भाषा और उर्दू साहित्य के द्वारा ही यहां जीवित रह सकती है। देवनागरी और फ़ारसी लिपि के सम्बन्ध में भी मैं किसी समझौते को नहीं सोच सकता। लेकिन साथ ही मैं इसमें विश्वास करता हूं कि हिन्दी को जान-बूझ कर क्लिष्ट नहीं बनाना चाहिये। इसमें अपनी ही हानि है क्योंकि यदि जनता की भाषा से साहित्यिक हिन्दी बहुत दूर हो गई तो जनता इसको छोड़ देगी। लिपि के सम्बन्ध में भी राष्ट्रीय लिपि देवनागरी ही हो सकती है।