पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/१०२

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देशिता-ईश्वर होता ईशिता (सं० स्त्री०) ईशिन् भावे तल्। अणिमादि । अष्टके मध्य प्रथम ऐश्वर्य, सब पर दबाव रखनेको जगत्को प्रथम अवस्था में मानव जिसे अपने चारो भार देखता, जिसे देख प्रफुल्लित होता, जिसके द्वारा ताकृत। ईशिट (सं० वि०) ईष्टे इश च । १राजा, नवाब का उपकार होता और जिससे डरता, उसे हो भक्तिपूर्वक मानता और पूजता था। कालवश जितना २ प्रभु, मालिक। “तदौशितारं चैदीनां भवांस्तमवर्मस्त मा।" (माध) जानोन्मेष होता गया उतना ही वह सोचने- ईशित्व (सं० लो०) ईशिनो भावः । ऐश्वर्य, सबकत, मझने भी लगा, जिससे मैं डरता है, जिसे मैं बड़ापन। यह योगका एक धर्म है, जिससे जङ्गमादि। निता और पूजता हूं, वह कहांसे उपजता है ? उसके जीवजन्तु सकल वशीभूत हो जाते हैं। ईशिता शक्ति पताका पिता कौन है? उसे किसने बनाया है ? जो तरु-गुल्म-लता देख पडती है, वह क्या स्वभावसे हो पानेसे जगत् वश्य हो सकता है। उपजी है? जिस अग्निने द्रव्यको जलाया हैं, उसने ईशिन् (सं० त्रि.) ई-णिनि। १ ईखर दाहिकाशक्तिको कहांसे पाया है ? आकाशमें जो चन्द्र २ पति, खाविन्द। ३ प्रभु, मालिक । “शंसेद ग्रामदशेशाय , दशेशी विंशतौशिने ।” ( मनु ७।११६) . यतारा सकल निकलते हैं, जिनके रूपसे जगत् मुग्ध ईशिर (सं० पु.) अग्नि, आग । तिा है और जिनसे कितना ही उपकार होता है; 1 सबका स्रष्टा कौन है? जिस शक्तिसे चन्द्रसूर्य ईशोपनिषत् (सं० लो०) उपनिषत् विशेष। ईखर (सं० त्रि.) ईष्टे ईश-वरच । स्थ शभासेति। पा कलकर चमकते हैं, उसका आदि कारण कहां है ? सी प्रकार चिन्ता जबसे मानवके मन में उठी, तबसे. ३।२।१७५। १ पाढ्य, कर सकने लायक । (पु.)२ शिव। ३ ब्रह्म। ४ कामदेव। ५ नियन्ता, हुकम- एक अज्ञात पुरुष रहने की बात सूझने लगी और अज्ञात पुरुषको ढढने की इच्छासे दौड़ भी लगाना रान्। ६ प्रभवादिके मध्य एकादश वत्सर। ७ स्वामी, पड़ी। यही ईश्वरतत्त्वका प्रथम सोपान है। हमारौ मालिक। ८ऐखयशालो, हैसियतवाला। राजा। पराराध्य वेदसंहितामें उक्त महातत्त्वका आभास १० पारद, पारा। ११ मकरध्वज। १२ पित्तल,पीतल। मिलता है। प्रथम भारतवासी इन्द्र, अग्नि, मित्र, १३ परमेश्वर। वरुण, सूर्य, सोम, वनस्पति प्रभृतिकी आराधना करते "ईश एवाहमत्यर्थं न च मामौशते परे। ददामि च सदैश्वर्थ ईश्वरस्ते न कोयं ते ॥" (स्कन्दपुराण) थे। उसी समयसे ऋषियोंके मनमें ईश्वरचिन्ता चढ़ी और यह भावना बढ़ी,- अर्थात मैं ही सकलका अतिशय नियन्ता हूं। मेरा नियन्ता कोई नहीं। मैं सर्वदा ऐश्वर्य देता हूं। “पचिकित्वाचिकितुषश्चिदव कवीन् पृच्छामि विद्मने न विद्वान् । वि यस्त स्तम्भ पलिमा रजांस्यजस्य रूपे किमपि खिर्दकम् ॥" इसीसे लोग मुझे ईखर कहते हैं। (ऋक १।१६४।६) यदि ऋक्संहिता एवं अपरापर वेदमें इन्द्र तथा हम ज्ञानहीन हैं। कुछ न समझकर हम उनके मातापिताको कथा मिले, तो वह वैदिक भानियोंसे पूछना चाहते है, जो ये छः लोक हैं, ऋषिगणको प्रथम अवस्था मानना पड़ेगी। क्योंकि व क्या एक अज रूपसे रहते हैं ? भारतीय ऋषि- उसके बाद ही अजर, अमर, असीम इत्यादि विशेषण याने ठहराया, कि उन्हीं असीम अनन्तमय दौष्यिताने द्वारा विशेषित होनेसे इन्द्रका ईश्वरत्व प्रतिपादित है।। सकल जगत उपजाया है। इसीसे वे मुक्तकण्ठ हो । कौषातको ब्राह्मणोपनिषत् (३२)में इन्द्रको उक्ति है,- पुकारने लगे,- इन्द्रही प्राण और वही प्रत्यज्ञात्मा हैं। उन्हों प्रत्य "अदितिौरदितिरन्तरिच पदितिर्माता स पिता स पुवः । जात्माका ध्यान करनेसे अक्षय और अमर वर्ग प्राप्त विश्वे देवा अदितिः पञ्च बनाः पदितिर्जातमदिति नित्वम् ॥" होता है। (नैत्तिरीयसहिता ॥११) . .. (ऋक् । ) Vol. III. 26 अदिति पाकाथ, पदिति अन्तरीच पदिति माता