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पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/११०

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ईश्वर १०६ "नमी देव्यै महादेव्यै शिवायै सतत नमः । उपासकको कार्यसिद्धिके निमित्त उभय सगुण हो नमः प्रकृत्य भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ॥ ७ जाते हैं। अतिसौम्यातिरुद्राय देव्यै कृत्यै नमो नमः । ___ यह साकार उपासना आजकल सकल ससारी नमी जगत्प्रतित्वाय देव्ये कृत्यै नमो नमः ॥ ११ या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता । ईश्वर-तत्वानुसन्धायो प्राथम-कल्पिक मात्रको ग्रहण नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ १२ करना उचित है। श्रीमद्भागवतमें लिखा है,-: या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते । "अचंदावर्चयेत् तावदोश्चर मां खकर्मकृत् । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥" यावन्नवेद खहदि सर्वभूतेष्ववस्थितम् ॥" (भागवत ३।२०।२५) (मार्कण्डेयपुराण ८५ अध्याय) मैं ईखर है। मुझे प्रतिमा दिमें पूजना कर्मी “नमो देवि महामाये सृष्टिस'हारकारिणि । लोगोंका तभीतक कर्तव्य है, जबतक उन्हें निज हृदय अनादिनिधने चण्डि भुक्ति मुक्तिप्रद शिवे ॥ एवं सर्वभूतमें मेरा अवस्थान समझ नहीं पड़े। न ते जपं विजानामि सगुण निर्गणन्तथा। किन्तु जब देही निज हृदय एवं सर्वभूतमें चरिवाणि कुती देवि स ख्यातीतानि यानि ते ॥" . ईश्वरका पवस्थान पाये और प्रकृत ज्ञानमें समा जाये, (देवीभागवत १४०-४१) तब उसे प्रतिमाका पूजन आवश्यक नही है। भग- शव पुकारते हैं,- "त' प्रपद्य महादेवः सर्वज्ञमपराजितम् । वान्ने समझाया है,- विभूतिः सकलं यस्य चराचरमिदं जगत् ॥" “अथ मां सर्वभूतेषु भूतात्मान' कृतालयम। (शिवपुराण-वायुसहिता ११७) अर्चयेद्दालमानाभ्या मैववाभिन्ने न चक्षुषा ॥” ( भागवत २२९।२७) वैष्णवोंको स्तुति है,- अनन्तर मुझ सर्वभूतमें अवस्थित समझ सकनेपर "अविकाराय शुद्धाय नित्याय परमात्मने । मनुष्य सर्वत्र सकलको दान, मान तथा मैत्रीसे पूजे सदै करूपरूपाय विष्णवे सर्व जिष्णवे ॥ और अभिन्न दृष्टिसे देखे। (यही मेरी प्रकृत पूजा है) नमो हिरण्यगर्भाय हरवे शङ्कराय च । हमारे प्राचीन शास्त्रों में जिस प्रकार ईश्वरका ग्रहण वासुदेवाय ताराय वर्गस्थित्यन्तकारिणे ॥" (विष्णुपुराण १।२।१४) किया गया है उसे हमने अलग-अलग दिखा दिया। यद्यपि भिन्न भिन्न सम्प्रदाय भिन्न रुप और भिन्न अब चार्वाकादि भिन्न सम्प्रदाय जिस प्रकार ईश्वरका नामसे अपने उपास्य देवताको पुकारते हैं तो भी अस्तित्व मानते या नहीं मानते उसे भी नीचे यह अनायास ही समझ पड़ता है, कि वे समस्त दिखाते हैं। मतावलम्बी उसी एक अद्वितीय ईश्वरको लक्ष्य कर चार्वाकके मतमें ईखर कोई वस्तु नहीं। चैतन्च- अपनी-अपनी स्तुति करते हैं। विशिष्ट देह ही आत्मा है। उसे छोड़ स्वतन्त्र तन्त्र में कहा है,- आत्माका रहना असङ्गत है। लोकसिद्ध राजा पर- मेश्वर और देहका उच्छेद ही मोक्ष है। "निगुणा प्रकृतिः सत्यमहमेव च निर्गुणः । यदैव सगुणा त्वं हि सगुणोऽहं सदाशिवः ॥ जैनमतमें अनन्तज्ञान, अनन्तसुख, अनन्तवीय सत्य हि सगुणा देवी सत्य' हि निगुण: शिवः । आदि अनेक गुणोंसे विशिष्ट श्रात्माको ईखर माना है। उपासकालां सियर्थ सगुणा सगुणो मतः ॥" संसारमें जितने आत्मा हैं, वे सब शक्तिको अपेक्षा (मुण्डमालातन्त्र ७ पटल) ईश्वर हैं, परन्तु ज्ञानावरण आदि पाठकों से उनके मेरा ( ईश्वरका) और प्रकृतिका निर्गुण होना गुण आवृत हो रहे हैं, इसलिये वे इस समय अल्पज्ञता, सत्य है। किन्तु आपके सगुण होनेसे मैं भी सगुण अल्पशक्तिता आदि दूषणोंसे दूषित होने के कारण (मूर्तिमान् ) बन जाता है। देवीके सगुण और ईश्वर नहीं हैं। जिस समय यह जीव अपने तप और शिवके निगुण रहने में कोई सन्देह नहीं। हां, ध्यानके प्रभावसे कर्मोको नष्ट कर डालता है, उस समय Vol. ' III. 28 (मामा