११० सर्वज्ञता आदि गुणोंसे विशिष्ट हो जाता है और उसी , जो विशेष रीतिसे जैनी पजते हैं, उसका कारण यह समयसे ईश्वर कहलाने लगता है। फलतः जितने है कि सामान्य मुक्तात्माओंको अपेक्षा उन्होंने समय आत्माओंने मुक्ति (ज्ञानावरणादि कर्मी से शून्यता) समयपर सदुपदेश द्वारा आत्माके कल्याणका विशेष प्राप्त कर ली है, वे सब ही ईश्वर हैं। जैनलोग रीतिसे मार्ग बतलाया है। उन्होंके आविर्भूत मार्गपर ऐसे ही आत्माओं को पूजते हैं, ऐसोंका ही ध्यान चलकर जीवोंने मुक्ति पाई है और सामान्यांने बहुत करते हैं और ऐलोंको ही ईश्वर नामसे पुकारते हैं। थोड़ा उपदेश दिया है। तोर्थङ्कर श्रोर जैनधर्म शब्द देखो। नैयायिक प्रादि मतावलम्बियों के समान जैनशान बौद्धोंमें प्रधानतः हीनयान और महायान दो ईश्वरको सृष्टिका झर्ता नहीं खीझार करता। उसके सम्प्रदाय हैं। हीनयान गौतमबुद्धका प्रचारित मतमें यह जगत् अनादि-निधन है। इसको न तो धर्ममत मानते हैं। उनके मत देह क्षणभङ्गर किसौने उत्पन्न किया और न कोई इसका सर्वथा | है, ध्यान, धारणा एवं योग द्वारा ज्ञान मिलता नाश हो कर सकता है। जो कुछ इसको इस है; और उसके पोछे निर्वाण होता है। वे समय वर्तमान लालूम पड़ता है और थोड़ी देर | ईश्वरका अस्तित्व खोकार नहीं करते। महायान बाद उसोका जो हम नाश देखते हैं, वह और शून्यशद मानते हैं। उनके शास्त्रमें ऐश्वरको बात कुछ नहीं केवल पदार्थका पर्याय मान बदलना बिलकुल नहीं लिखी। परवर्तीकालमें उन्होंने हमारे है, ऐसे पर्याय तो सर्वदा बदला करते हैं, परन्तु ऐसा तन्त्रोक्त देवताओंको खोशार किया सहो, किन्तु एक कोई समय न था और न हो सकता है जिस समय अद्वितीय ईश्वरको माननसे मुंह मोड़ लिया। वे कोई पदार्थ न हो वा न रहा हो। क्योंकि सत्का आत्माको भोगी, विनाशो और क्षणस्थायो बताते हैं। अभाव और असत्को उत्पत्ति प्रमाण-बाधित है। । शून्यता हो नित्य, अक्षय और अव्यय है। शरीरस्थ समन्तभद्रखामौने अपने 'रत्नकरण्डश्रावकाचार में इन्द्रियगण अवधि अभावविशिष्ट रहता है अर्थात् ईश्वरका जो लक्षण बतलाया है, वह यह है- आत्मदर्शन करने की क्षमता नहीं रखता। अत- "आप्ते नोच्छिन्नदाह सर्वज्ञ नागमेशिना। एव अभाव-खभाव समझ भवार्णव अतिक्रम करना भवितव्य नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥ ५ मुमुक्षुका धर्म है। जगत्को उत्पत्तिसे पूर्व केवल शून्य चन्धिपासाजरातजन्मातभयभवाः । था, इसीसे शून्य के आश्रयका प्रयोजन पड़ा। शून्य न राग धमोहाच यस्याप्तः स प्रकौयं ते॥"६ व्यतीत सकल पदार्थ मिथ्या हैं। शून्यमें मन लगा परमेष्ठो पर ज्योतिर्विरागो विमल: कृतिः । समाधिस्थ होनेसे क्रमशः देहो निर्वाणपद पाता है। सर्वज्ञोऽनादिमध्यान्तः सार्व: शावोपलाल्यते ॥ ७ समाधिराज, माध्यमिकसूत्रवृत्ति और अभिधर्मकोष- अर्थात् जिसके भूख, प्यास, बुढ़ापा, रोग, जन्म, व्याख्या नामक बौद्ध ग्रन्थमें यह बात अच्छीतरह मरण, भव, गव, राग, द्वेष, मोह और 'च'से रति लिखो है। वोद्धधर्म देखो। अरति, खेद, खेद, निद्रा, चिन्ता, आश्चर्य ये अठारह उक्त जैनों और बौद्धों को छोड़ कर पहले दूसरे भो दोष न हों जो सर्वजहो, समस्त प्राणियोंका हितैषी | अनेक सम्प्रदाय थे, जिनमें कोई ईश्वरको मानते, हो, कर्ममल रहित हो, कृतकृत्य हो, और जो परम | कोई ईश्वरको जड़रूप जानते और कोई ईश्वरको पदमें रहनेवाला हो वही प्राप्त है। बिलकुल पहचानते न थे। आमन्दगिरि-कृत शङ्कर- बहुतसे लोगोंका ख्याल है, कि जैनी ईश्वर नहीं दिग्विजयमें उनका विवरण विद्यमान है। मानते वा चौबीस तीर्थंकरोंको ही ईश्वर मानते हैं। बौद्धों पार जैनौका प्राधान्य बढ़ने पर भारतवर्षसे परन्तु यह बात ठीक नहीं। जैनशास्त्रमें उपर्युक्त सनातन ब्राह्मण धर्मके लोप होनेका उपक्रम उठा था। गुणवाला रखर माना गया है। चौबीस तीर्थङ्करों को उसी समय भगवान् शङ्कराचायने जन्म ग्रहणकर
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