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पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/११२

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ईश्वर १११ विधर्मियोंके कराल कवलसे सनातन धर्मको निकाल | बुद्धौ तिष्ठन्नान्तरोऽस्वाधियानीच्यश्च धौवपुः । . बहतवाद प्रचार किया। उनके मतसे- वियमन्तर्यमवतीत्येवं वेदेन घोषितम् ॥" १०९ ___“न तावदयमकान्तेनाविषयः । अस्मत् प्रत्ययविषयत्वात् अपरोचत्वाच्च (पञ्चदशै ६ परिच्छेद) प्रत्ययात्मप्रसिद्धेः। न चायमस्ति नियम: पुरोऽवस्थित एव विषये विषयान्तर ईश्वरने जो कुछ बनाया, उसे कोई बिगाड़ नहों मध्यसितव्यमिति। अप्रत्यक्षेऽपि हाकाशे वालामालमलिनताद्यध्यस्यन्ति ।। सकता; इसोसे वह सर्वेखर कहलाता है। कारण, एवमविरुड : प्रत्ययात्मन्यपानात्माध्यास:।" (शारीरिकभाष्य ११) समस्त प्राणीको बुद्धि वासना उसो ईश्वर में रहती यह कथन ठीक नहीं कि यात्मा बिलकुल | है। बुद्धिवासनासे हो यह ब्रह्माण्ड व्याप्त है। बुद्धि- विषय है और उसमें किसी प्रकार विषय लगना वासना पराधीन होनेसे ईश्वरको सर्वज्ञ कहते हैं। सम्भव नहीं। दूस जीवावस्थामें अस्मद् प्रत्ययको विष- अन्तर्यामी होने का कारण यह है, कि विज्ञानमय यता होती है और अन्तरात्म-रूप प्रतीत पड़नेपर | प्रकृति कोष अोर बन्यान्य वस्तुसमूहमें रह ईश्वर अपरोक्षता मी रहती है। अात्मा 'अहं' (मैं) ज्ञानका उसको यथानियम नियुक्त करता है। जो बुद्धिमें विषय होनेले बिलकुल अविषय और अपरोक्ष कहा रहते भी बुद्धिसे दूर पड़ता है और धीमय होवे भी जा नहीं सकता। अविद्या-काल्पित 'अहं' जबतक धोंका विषय नहीं बनता, वही ईश्वर वुद्धिसे अन्तरस्थ जड़ेगा, तबतक उसे अहं वृत्तिका विषय कान न रहते भी बद्धिको नियुक्त कर देता है। कहंगा! आत्मा अप्रत्यक्ष नहीं, पूर्ण प्रत्यक्ष है। "नायः पुरुषकारेणेत्येव' मा शङ्कयतां यतः । क्योंकि जीवमात्र आत्मा अर्थात् अपनेको अहं (मैं) . ईश: पुरुषकारख रूपेणापि विवर्तते ॥" ११६ रूपसे देखा करता है। बालक अप्रत्यक्ष आकाशमें इसप्रकार प्राशङ्का न कीजिये, कि कुछ भो मलिनताका दोष लगा देते हैं। अतएव साक्षात् पुरुषका वतिसाध्य होना असम्भव है। क्योंकि ईश्वर प्रत्यक्ष और इन्द्रिय ग्राहा न होते भी आत्माके समझने में हो पुरुषरूपमें परिणत होता है। कोई वाधा नहीं पड़ती। "राविधस्रो मुन्तिबोधावुन्मोलननिमोलने । __“योत्पत्तित्र द्वाण: कारणात् तदेव स्थिति: प्रलयस्थ ते गृह्यते। तुष्णोम्भावमनोराज्य इव सृष्टिलयाविमौ ॥” १२३ न यथोक्तविशेषणस्य जगतो यथोक्तविशेषणमीश्वरं मुक्त्वान्यतः प्रधानाद- जैसे दिवा एवं रात्रि, जाग्रत एवं सुषुप्ति ; चक्षुःके चेतनादणुभ्योवाऽभावाब्दा संसारिणा वा उत्पत्यादि सम्भावयितु' शक्यम् ।". उन्मीलन एवं निमीलन और तुष्णोभाव एवं मनोराज्य (शारीरकभाष्य १।१२) ब्रह्मसे जगत् उपजता, ब्रह्ममें ठहरता और ब्रह्ममें प्रभृतिमें जानका, वैसे ही ईखरमें जगतका तिरोभाव हो समा जाता है। बस ! ईखर व्यतीत शून्य, अभाव, तथा आविर्भाव स्पष्ट समझ पड़ता है और प्रलय तथा जड़प्रकृति, परमाणु किंवा जन्म-मृत्यु के अधीन किसी उत्पत्ति कहा जाता है। संसारी जीवसे इस प्रकार सृष्टि, स्थिति और लय "मायो सृजति विश्व' सबिरुद्धस्तब मायया । होना विज्ञ मतमें सम्भावित नहीं होता। अन्य इत्यपरा बूते श्रुतिस्ते नेश्वरः सृजेत् ॥ श्रानन्दमय ईशोऽयं बहुस्वामित्यवेक्षत । शङ्कराचार्य ने भिन्न भिन्न मतको काट इसप्रकार हिरण्यगर्भरूपोऽभूत् सुप्ति:स्वप्नो यथा भवेत् ॥" १३० विशुद्ध वेदान्त मत प्रचार किया था,- मायावी ईश्वर अपनी मायामें बद्ध हो इस समस्त “श्रयं यत् सृजते विश्व तदन्धथायतु पुमान् । विख की सृष्टि करता है। श्रुतिमें हो उसे परब्रह्मसे न कोपि शक्तस्तै नायं सर्वश्वर इति श्रुतः ।१०७ भिन्न कहा है। सुषुप्तिके अवस्थाभेदसे खतरूपमें अशेषप्राणिबुद्धीनां वासनास्तव सस्थिताः । परिणत होनेकी भांति ईश्वरने बह शरीरमें प्रविष्ट ताभिः कोड़ीकृतं सर्व तेन सर्वज्ञ ईरितः।१०८ विज्ञानमयमुख्य षु कोषेष्वन्यव चेव हि । होनेके सङ्कल्प द्वारा हिरण्यगर्भरूप पाया है। अन्तस्तिष्ठन् यमयति तैनान्तर्यामितां ब्रजेत्। । ईश, हिरण्यगर्भ, विराट, प्रजापति, विष्णु, रुद,