ईश्वर ११२ इन्द्र, अग्नि, विघ्नभैरव, मैराल, मारिक, यक्ष, वही विस्तृत भावसे बताया है। हम नीचे उसोका राक्षस, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, गो, अश्व, सार संक्षेपमें लिखते हैं,- मृग, पक्षी, अश्वस्थ, वट, अाम, यव, धान्य, तृण, 'वष्णका खरूप सत्, चित् और आनन्दमय है। अतएव स्वरूप-शक्ति तीनप्रकार होती है। आनन्दांशमें जल, प्रस्तर, मृत्तिका, काष्ठ, एवं कुदाल प्रकृति सकल ही उसके अवयव हैं और पूजा पानेसे आल्हादिनी, सदंशमै सन्धिनी और चिदंशमें सम्विद शुभफल देते है। शक्ति रहती है। कृष्णको आल्हाद देनेसे पाल्हादिनी नाम पड़ा है। सुखरूप कृष्ण सुखास्वादन करता “अहितीयब्रह्मतत्त्व खप्नोऽयमखिलं जगत् । ईशजौवादिरूपेण चेतनाचेतनात्मकम् ॥ है। भक्तको मुख देने का कारण आल्हादिनी ही है। पानन्दमयविज्ञानमयादीश्वरजीवको। आल्हादिनी जिसका अंश है, उसकी संज्ञा प्रेम है। मायया कल्पितावेतौ तान्या सर्व प्रकल्पितम् ॥” १३६ प्रेम आनन्द और चिन्मय रूप-रसका आख्यान है। ईश्वर, जीव एव देह प्रभृति चेतन और अचेत प्रेमका परम सार और भाव महाभावरूप श्रीराधा नात्मक जगत्समुदाय अद्वितीय ब्रह्मतत्त्वमें माया रानीको समझना चाहिये।' गौडीय वैष्णवसमाजके कल्पित स्वप्नस्वरूप है। क्योंकि प्रानन्दमय ईश्वर ईश्वरतत्त्वका सार यही है। और विज्ञानमय जीव दोनो माया द्वारा कल्पित हैं। रामानुजके बाद भारतमें नाना सम्प्रदायों द्वारा इन्हीं दोनोसे समुदाय विश्व बना है। वैष्णवधर्भ प्रवर्तित हुआ था। मध्याचार्यसे वल्लभाचार्य "ईक्षयादिप्रवेशान्ता सृष्टिरौशन कल्पिता। पर्यन्त विभिन्न वैष्णव सम्पदायके प्रवर्तकौन ज्ञान और जाग्रदादि विमोक्षान्तः स सारी नौवकल्पितः ॥” १३७ (पञ्चदशी)। कर्मकाण्डका प्राधान्य न मान भक्तिकाण्डको ही ईश्वर . सृष्टिविषयक सङ्कल्पसे सर्व वस्तुमें प्रवेश पर्यन्त वा भगवत् प्राप्तिका प्रशस्त मार्ग बताया। अवशेषमें ईश्वर और जाग्रत अवस्थादिसे मोक्ष पर्यन्त व्यापार महाप्रभु चैतन्यदेवने विशुद्ध प्रेम ही ईश्वर वा कृष्ण- समुदाय जीवकल्पित है। ब्रह्म और शङ्कराचार्य देखी। प्राप्तिका मुख्य कारण प्रदर्शित किया था। सपार्षद - कुछ पौके पूज्यपाद रामानुजने प्रचार किया, चैतन्यदेव गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदायके प्रवर्तक हैं। ईखर सकलका अन्तर्यामी है। जगतमृष्टिके प्रारम्भमें उन्होंके प्रभावसे परवर्तिकाल व्रजमण्डलमें नाना चित् तथा अचित् सूक्ष्मभावसे उसके अक्षरूपमें रहता वैष्णव सम्प्रदायका प्रकाश हुआ। उसमें कोई योकृष्णा, है, किन्तु चित्, अचित् और ईश्वर तीनोंमें परस्पर कोई राधा और कोई राधाकृष्णको युगल मूर्तिको भेद है। स्थूल रूपमें परिणत होनेसे चित् और ईश्वर भावसे पजते हैं। देशवसम्प्रदाय शब्दमें विस्त त विवरण देखी। अचित्का अन्तर्यामी ईश्वर होता है। जीवसमूह और वङ्गालके परमसाधक रामप्रसादके कथनानुसार जड़जगत्के नाना उपकरणमें ईश्वर सर्वदा वर्तमान | शक्ति ही मूलाधार है। उसीके करनेसे सब कुछ होता रहता है। है। उसके रुपकी कल्पना हम कर नहीं सकते। मन चैतन्यदेवको रामानन्दने इसप्रकार ईश्वरतत्त्व | ही उसे पूजता और देखता है। प्रकृति-पुरुषसे विश्व समझाया था,- बनता है। "रः परमश: सच्चिदानन्दविग्रहः । महात्मा राममोहनरायके मतसे ब्रह्मका काली- अनादिरादिगोविन्दः सर्दकारणकारण: ॥” (ब्रह्मसंहिता)। कृष्णादि रूपधारण केवल मायाका कार्य है। इससे अर्थात् सच्चिदानन्द-मूर्ति, सर्वकारणका कारण, भक्त केवल रूप नामसे बद नहीं रहता। जन्मस्थिति अनादि और प्रादि गोविन्द ही परमकृष्ण ईश्वर है। भङ्गका कारण समझ तटस्थ लक्षणसे भी ईश्वरको अनन्तर रामानन्दने विष्णुपुराणका वचन उद्दतकर उपासना हो सकती है। वाद्योद्यभ, शङ्खघण्टाध्वनि जो ईश्वर-तत्त्व समझाया, 'चैतन्यचरितामृत' ग्रन्थमें } और वेदमन्त्रयुक्त देवोत्सवमें भी आविर्भाव दर्शन-
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